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संस्कृत साहित्य का इतिहास हेमचन्द्र ( १०८८-११७२ ई० ) ने कई विषयों पर ग्रन्थ लिखे हैं । वह जैन था । वह १२वीं शताब्दी में अनहिलवाद ( गजरात ) के राजा जयसिंह और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल का आश्रित कवि था । हेमचन्द्र के प्रयत्न से ही कुमारपाल जैन हुअा और राज्य का धर्म जैन धर्म घोषित हुआ । हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और व्याश्रयकाव्य नामक दो काव्य ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें से प्रथम पुस्तक दस पर्वो में है । इसमें जैन धर्म के ६३ व्यक्तियों का जीवन चरित वणित है। दूसरे में कवि ने अपने प्राश्रयदाता कुमारपाल के इतिहास का वर्णन किया है । अतः इसको कुमारपालचरित भी कहते हैं । इसमें बीस सर्ग संस्कृत में और आठ सर्ग प्राकृत में हैं । अतः इसको व्याश्रयकाव्य कहते हैं । हेमचन्द्र ने संस्कृत और प्राकृत भाषा के लिए जो व्याकरण-नियम बनाए हैं, उनका इसमें उदाहरण प्रस्तुत किया है। इन दोनों काव्यों से ज्ञात होता है कि लेखक काव्य के द्वारा जैन धर्म को जन-प्रिय बनाना चाहता था।
कविराज कादम्ब वंश के राजा कामदेव (११८२-१११७ ई०) का आश्रित कवि था। अतः उसका समय ११६० ई० के लगभग मानना चाहिए। वह अपने आपको वक्रोक्ति का आचार्य मानता है और अपना स्थान बाण और सुबन्धु के साथ रखवाना चाहता है। उसने राघवपाण्डवीय और पारिजातहरण नामक दो काव्य लिखे हैं। इनमें से प्रथम द्विसन्धान काव्य है । इसमें राम और पाण्डवों की कथा १३ सर्गों में वर्णित की गई है । दूसरे में १० सर्ग हैं। इसमें कृष्ण के द्वारा स्वर्ग से पारिजात के लाने का वर्णन है। कविराज द्विसन्धान काव्य की रचना में प्रवीण हैं तथा उसमें उनकी प्रतिभा का विकास हुआ है । इसके लिए निम्नलिखित दो श्लोकों का प्रमाण पर्याप्त है--
तद्वाक्यान्ते दत्तकर्णानुमोदः पुत्रप्रीत्या जातकृच्छः कुमारम् । धर्मात्मानं प्रेषयामास दूरम् विश्वामित्रप्रीतये भूमिपालः ।।१७६।।