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संस्कृत साहित्य का इतिहास
काव्य और अमततरंगकाव्य भी लिखे थे । उसके अन्य लुप्त ग्रन्थों के साथ ये भी लुप्त हो चुके हैं। रामायण और महाभारत आदि के संक्षिप्त वर्णनों से उसकी साहित्यिक योग्यता का पता नहीं चलता है। उसके ये ग्रन्थ पुराणों और रामायणादि की शैली पर सरल प्रवाहयुक्त भाषा में लिखे गये हैं।
बिल्हण कश्मीर में उत्पन्न हुआ था । वह ज्येष्ठकलश का पुत्र था। वहाँ पर अध्ययन के बाद उसने १०५० के लगभग कश्मीर छोड़ दिया । बहुत समय तक इधर-उधर घूमने के वाद १०७० ई० के लगभग अनहिलवाद के चालुक्य-राजा लोक्यमल्ल के राजद्वार में स्थिर हुआ। कुछ वर्ष बाद वहाँ से हट कर वह कल्याण के विक्रमादित्य चतुर्थ के आश्रित राजकवि हुअा। उसने १०८५ ई० के लगभग १८ सगों में विक्रमांकदेवचरित नामक महाकाव्य लिखा। इसमें उसने अपने आश्रयदाता का तथा उसके पूर्वजों का जीवन-चरित वर्णन किया है। इसमें उसने अपने आश्रयदाता की मृगया-यात्रा तथा उसका शीलहर की रानी की पुत्री चन्द्रलेखा के साथ विवाह का भी वर्णन किया है। अन्तिम सर्ग में उसने अपने भ्रमण का विवरण दिया है । बिल्हण विस्तृत वर्णन करने में अत्यन्त निपुण है। उसकी शैली बहुत उत्तम है और उसका काव्य वैदर्भी रीति का अच्छा उदाहरण है। इस ग्रन्थ में उसने अपने एक अन्य ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो राम के जीवन के विषय में था, पर वह अप्राप्य है।
कुष्णलीलाशुक का दूसरा नाम बिल्वमंगल था । वह १२वीं शताब्दी में मालाबार में उत्पन्न हुआ था। उसने बहुत से ग्रन्थ लिखे हैं, जो कि काव्य, गीतिकाव्य, दर्शन और व्याकरण आदि विषयों पर हैं । उसने १२ सर्गों में गोविन्दाभिषेक नामक काव्य लिखा है । इसमें प्राकृत व्याकरण के नियमों का उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण है। इसका दूसरा नाम श्रीचिह्नकाव्य है। उसके काव्यों में यह सबसे अधिक प्रसिद्ध काव्य है । ग्रन्थ में साथ ही उसने अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण की प्रशंसा भी की है।