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गीति-काव्य
शुद्ध गीतिकाव्य के पारस्परिक परिवर्तन की अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है । इसमें प्रेम के प्रत्येक पद्य को लिया गया है । भारतीय टीकाकार इस गीतिकाव्य के प्रेम की रूपकात्मक व्याख्या करते हैं । इसमें कृष्ण ब्रह्म के प्रतिनिधि हैं और राधा जीवात्मा की । यह गीतिकाव्य ब्रह्म और जीवात्मा
नायक-नायिका भाव सम्बन्ध मानता है । यह गीतिकाव्य यद्यपि मूलत: शृङ्गारात्मक है, परन्तु पूर्वोक्त प्राध्यात्मिक व्याख्या के कारण अत्यन्त प्रसिद्ध हो गया है । समस्त देश में इसके असंख्य प्रशंसक हैं और यह पूजा के अवसरों पर गाया जाता है । राधाकृष्ण की पूजा की प्रसिद्धि का बहुत अधिक श्रेय इस गीतगोविन्द को है । यद्यपि भक्तिकाव्य के रूप में इसका महत्त्व कम नहीं किया जा सकता है तथापि शृङ्गारात्मक गीतिकाव्य के रूप में इसका महत्व अधिक है । इसकी बहुत सी टीकाएँ हैं । रुकेर्ट ने जर्मन भाषा में इसका अनुवाद किया है। रायभट्ट ( १६०० ई० पू० ) का शृङ्गारकल्लोल विषय और रचना की दृष्टि से अमरुशतक के समान है ।
धार्मिक गीतिकाव्य
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गीतिकाव्य में धार्मिक गीतिकाव्यों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है । साहित्य के अन्य विभागों की अपेक्षा इन भक्तिकाव्यों ने जनता को अधिक प्रभावित किया है । इनके ही प्रभाव के कारण धार्मिक भावना की अग्नि शान्त नहीं होने पाई है । भारत में विभिन्न धर्मों ने जो आध्यात्मिक उन्नति की है, उसका प्रमुख श्रेय इन्हीं को है । हिन्दुत्रों के धार्मिक गीतिकाव्यों के प्रभाव को देखकर बौद्धों और जैनों ने अपने पृथक् धार्मिक गीतिकाव्य लिखे हैं । इन भक्तिकाव्यों का लक्ष्य यह रहा है कि मनुष्य के मन को सांसारिक विषय, सांसारिक सुख और सांसारिक ऐश्वर्य की ओर से हटाकर उसे बुद्धिमार्ग और ईशभक्ति के मार्ग पर लगावे । धार्मिक कार्यों की आवश्यकता पर जो बल दिया गया, उसके परिणामस्वरूप धार्मिक गीतिकाव्यों का जन्म हुआ । इन गीतिकाव्यों का दृष्टिकोण दार्शनिक है । ये पंचक, अष्टक, दशक, पंचाशत और
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