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के काव्य-लेखकों ने सच्ची मित्रता, सदाचारिणी स्त्रो और आत्म-बलिदान की बहुत प्रशंसा को है। दूसरी ओर दुर्गुणों के साधनों की बहुत तीव्र निन्दा की गई है। साधारणतया स्त्रियों की निन्दा की गई है । पाण्डित्य-प्रदर्शन और अवास्तविक अध्ययन की निन्दा की गई है। कृपणता और दीनता की त्रुटियों का उल्लेख किया गया है तथा इनका मनुष्यों और उनके जीवन पर क्या बुरा प्रभाव पड़ता है, इसका विस्तृत वर्णन किया गया है । भाग्य की अवश्यंभाविता का उदाहरणपूर्वक वर्णन किया गया है, किन्तु साथ ही यह भी वर्णन किया गया है कि मनुष्य को अपना उत्साह और प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए और अवसर के अनुकूल कार्य करना चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ से ही भाग्य बनता है। देखिए :--
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य निपतन्ति मुखे मृगाः ।।। अतः इस प्रकार के काव्य में धर्म, दर्शन, सदाचार और राजनीति का वर्णन है । हिन्दू, बौद्ध और जैनों ने इस प्रकार के काव्य की समृद्धि के लिए पूर्ण प्रयत्न किया है। इस प्रकार की कविता को नीतिकाव्य कह सकते हैं।
गीतिकाव्य के तुल्य नीतिकाव्य भी विभिन्न प्रकार का है । नीतिकाव्य पद्यबद्ध हैं। परिमाण में वे एक श्लोक से लेकर कई श्लोकों से युक्त हैं । इनका वास्तविक प्रभाव डालने के लिए इनको कथाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं । इनमें से कुछ ऐसे श्लोक भी हैं, जो किसी पुस्तक में उपलब्ध नहीं होते है, परन्तु परम्परा के अनुसार प्राप्त हुए हैं। इस काव्य के इस प्रकार विकास का प्रभाव यह हुआ कि जो श्लोक इधर-उधर प्राप्त होते थे, उनको पुस्तकों में स्थान देकर पुस्तकाकार बना दिया गया। इन श्लोकों के अधिकांश लेखक अज्ञात हैं। एक ही श्लोक विभिन्न पुस्तकों में प्राप्त होता है ।
इस प्रकार के काव्य का प्रारम्भ ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण में दिखाई देता है । महाभारत इस प्रकार के श्लोकों से परिपूर्ण है । इस प्रकार के काव्य