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संस्कृत साहित्य का इतिहास
रक्खा था। गंगादेवी का समय १३८० ई० के लगभग मानना चाहिए । लोलम्बराज विजय नगर के राजा हरिहर का आश्रित कवि था । उसने १४०० ई० में हरि-विलास नामक काव्य लिखा है। इसमें ५ सर्ग हैं । इसमें कृष्ण और उनके पराक्रम का वर्णन है ।।
वामनभट्ट बाण वत्सगोत्र के कोमटि यज्वन् का पुत्र था । वह विद्यारण्य का शिष्य था । वह अदंकी के राजा पेद्दकोमटि वेमभूपाल (१४०३-१४२० ई०) का आश्रित कवि था। अतः उसका समय १५वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मानना चाहिए। उसने राम के जीवन-चरित के विषय में ३० सर्गों में रघुनाथचरित नामक काव्य लिखा है और नल के विषय में ८ सर्गों का नलाभ्युदय काव्य लिखा है।
कल्हण की राजतरंगिणी को जोनराज ( १४५० ई० ) ने चालू रक्खा । उसने जयसिंह से लेकर सुल्तान जैन-ए-अबिदिन तक का वर्णन लिखा है। जोनराज के शिष्य श्रीवर ने अपने गुरु के कार्य को अपनी जैनराजतरंगिणी में चालू रक्खा है । उसने १४६८ ई० तक के राजाओं का वर्णन किया है। एक बाद के लेखक प्राज्य भट्ट ने राजावलिपताका नामक ग्रन्थ लिखा है और १४६८ ई० से लेकर अकबर के द्वारा कश्मीर को मिलाने के समय तक का कश्मीर का इतिहास-वर्णन किया है ।
मालाबार के एक कवि सुकुमार कवि (१४५० ई०) ने कृष्ण के पराक्रम के विषय में चार सर्गों में कृष्णविलास नामक काव्य लिखा है । इसकी शैली की सरलता और मनोरमता ने इसको मालाबार के सबसे प्रसिद्ध कवियों में स्थान दिलाया है।
राजनाथ द्वितीय विजयनगर के राजाओं का आश्रित कवि था। इसकी उपाधि डिण्डिम-कविसार्वभौम थी। वह विजयनगर के राजाओं के सेनापति साल्व नरसिंह का प्रिय कवि था। उसने १४३० ई० के लगभग १३ सर्गों में सालुवाभ्युदय नामक काव्य लिखा है। इसमें उसने साल्व नरसिंह के पराक्रम तथा उसके पूर्वजों का वर्णन किया है। उसके पौत्र राजनाथ तृतीय ने