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चन्द्रिका पोटिका 1
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अर लेश्या मार्गणा विषै प्रथमादि नरक पृथ्वीनि विषै लेश्या संभवने का, जिस-जिस संहनन के धारी जे-जे जीव जहां-जहां पर्यंत नरकविषै उपजे ताका, नरकनिर्विषं पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था अपेक्षा बंधस्थानंनि कर का, तिर्यच विषै एकेंद्रियादिक के वा भोगभूमियां तिर्यच के जो-जो लेश्या पाइए ताका, श्रर जे-जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि तियंच विषे उपजे ताका, अर तिनके निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था वि
स्थानft का अर जहां तें आए सासादन वा असंयत होइ अर तिनके जे बंधस्थानहोइ ताका, अर शुभाशुभलेश्यानि विर्षे परिणामनि का, तहां प्रसंग पाइ कषायनि के स्थान वा तहां संक्लेश-विशुद्धस्थान वा कषायनि के च्यारि शक्तिस्थान, चौदह लेश्या स्थान, बीस ग्रायु बन्धाबन्धस्थानः- तिनका श्रर लेश्यानि के छब्बीस अंश तहां पाठ मध्यम अंश श्रायुबन्ध को कारण, ते आठ अपकर्षकालनि विष होइ, अन्य मठारह अंश च्यारि गतिनि विषै गमन को कारण तिनके विशेष का, घर लेश्यानि के पलटने के क्रम का वर्णन करि तिर्थच के मिथ्यादृष्टि आदि विषै जैसे मिथ्यात्व कषायनि का उदय पाइए है ताकी कहि, तहां जे बंधस्थान पाइए ताका, अर भोगभूमियां तिर्यंच के वा प्रसंग पाई औरनि के जैसे निर्वृत्यपर्याप्त वा पर्याप्त मिथ्यादृष्टि आदि विषं जैसे श्याकरि बंधस्थान पाइए, वा भोगभूमि विषै जैसे उपजना होइ ताका वर्णन है ।
बहुरि मनुष्यमति विषै लब्धिपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त, पर्याप्त दशा विषे जो-जो लेश्या पाइए वा तहां संभवते गुणस्थाननि विषे बंधस्थान पाइए ताका वर्णन है ।
बहुरि देवगति विष भवनत्रिकादिक के निर्वृ त्य पर्याप्त वा पर्याप्त दशा दिषै जो-जो लेश्या पाइए, वा देवनि के जहां जन्मस्थान हैं वा जे जीव जिस-जिस लेश्याकरि जहां-जहां देवगति विषै उपजे वा निर्वृत्यर्याप्त वा पर्याप्त दशर विषै मिथ्यादृष्टि आदि जीवनी के जे-जे बंधस्थान पाइए तिनका घर तहां प्रासंगिक गाथानिकरि जे-जे जीव जहां-जहां पर्यंत देवगति विषै उपजै, वा श्रनुदिशादिक विमाननि तैं चयकरि जे पद न पावें, वा जे जीव देवगति ते वयकरि मनुष्य होइ निर्वारण ही जाय, वा जहां के श्राये तिरेसठ शलाका पुरुष न होइ वा देवपर्याय पाइ जैसे जिनपूजादिक कार्य करें तिनका वर्णन है ।
बहुरि भव्यमार्गणा विषे बंधस्थानति का वर्णन है ।
बहुरि सम्यक्त्व मार्गणा विषै सम्यक्त्व के लक्षण का, भेदति का, जहां मरण न होय ताका, वर प्रथमोपशम सम्यक्त्व जाऊँ होइ ताका, वा वार्क जिन प्रकृतिनि