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: सम्यग्जानधन्द्रिका धाठिका ]
[ ३५ की जघन्यादि उत्कृष्ट पर्यंत स्थिति भेदनि का कथन है । बहुरि तिनते असंख्यातगुणे स्थितिबंधाध्यवसायनि का वर्णन विर्षे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, निषेक, चयादिककरि स्थितिबंध कौं कारण परिणामनि का स्तोकसा कथन है । बहुरि तिमतें असंख्यात लोकमुरणे : अनुभागबंधाध्यवसायस्थावनि का वर्णन विर्षे 'द्रव्यस्थितिगुणहान्यादिककरि अनुभाग को कारण परिणामनि का स्तीका कथन है । बहुरि तिनतें अनंतगुणे कर्मप्रदेशनि का वर्णन विर्षे द्रव्यस्थिति, गुणहानि, नानागुणहानि, चय, निषेकनि का अंकसंदृष्टि वा अर्थकरि कथन है । तहां एक समय विर्षे समयप्रबद्धमात्र पुदगल बंधे, एक-एक निषेक मिलि समयप्रबद्धमात्र ही निर्जरै, असे होते द्वयर्द्धगुणहानिगुणित समयप्रबद्धमात्र सत्त्व रहे, ताका विधान जानने के अर्थि त्रिकोणयंत्र की रचना करी है ।
बहुरि असें बंध वर्णनकरि उदय का वर्णन विष उदय-प्रकृतिनि.का नियम कहि गुणस्थाननि विर्षे व्युच्छित्ति, उदय, अनुदय प्रकृतिनि का वर्णन हैं । बहुरि इहां ही उदीर्ण विषं विशेष कहि गुणस्थाननि विर्षे व्युच्छित्ति, उदीर्णा, अनुदीर्णारूप प्रकृतिनि का वर्णन है । बहुरि मार्गरणा विर्षे उदय प्रकृतिनि का नियम कहि गति आदि मार्गणानि के भेदनि विर्षे संभवते मुरणस्थाननि की अपेक्षा लीए व्युच्छित्ति, उदय, अनुदय प्रकृतिनि का वर्णन है । तहां प्रसंग पाइ अनेक कथन है ।
बहुरि सत्त्व का कथन विर्षे तीर्थंकर, आहारक की सत्ता का, मिथ्यादृष्टयादि विष विशेष पर प्रायुबंध भए पीछे सम्यक्त्व-व्रत होने का विशेष, क्षायिक-सम्यक्त्व होने का विशेष कहि मिथ्यादृष्टि प्रादि सात गुणस्थाननि विर्षे सन्थ प्रकृतिनि का वर्णन करि, ऊपरि क्षपकश्रेणी अपेक्षा व्युच्छित्ति, सत्त्व, असत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन है। बहरि मिथ्यादष्टि प्रादि गुणस्थाननि वि सत्त्व, असत्य प्रकृति नि का वर्णनकरि उपशम श्रेणी विर्षे इकईस मोहप्रकृति उपशमावने का क्रम का, अर तहां सत्त्वप्रकृतिनि का कथन है । बहुरि मार्गणानि विर्षे सत्ता-असत्ता प्रकृतिनि का नियम कहि गति प्रादि मार्गणानि के भेदनि विर्षे संभवते गुणस्थाननि की अपेक्षा लीए व्युनिछत्ति, सत्त्व, असत्त्व प्रकृतिनि का वर्णन है। तहाँ प्रसंग पाइ इन्द्रिय-काय मार्गमा विष प्रकृतिनि की उद्वेलना का इत्यादि अनेक वर्णन है। . . ... बहुरि विवेष सत्तारूप तीसरा सस्वस्थान-अधिकार विर्ष एक जीव के एक कालि प्रकृति पाइए तिनके प्रमाण की अपेक्षा स्थान, अरं स्थान विर्षे प्रकृति बदलने की अपेक्षा भंग, तिनका वर्णन है। तहां नमस्कारपूर्वक प्रतिज्ञाकरि स्थानभंगनि का