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मन समाधान ढूँढता है, इसलिए समाधानी व्यवहार रखना। शादी करने में क्या नुकसान है, बार-बार वह बताना। मन का स्वभाव विरोधाभासी है। वह ब्रह्मचर्य के सुख भी एकस्ट्रीम बताता है और विषय का सुख भी एकस्ट्रीम बताता है। उसका कोई नियम नहीं है। वहाँ हमें अपने सिद्धांत के अनुसार मन को मोड़ना चाहिए। और फिर मन जिद्दी भी नहीं है। जैसे मोड़ोगे, वैसे मुड़ जाए, ऐसा है।
मन के आधार पर किया हआ निश्चय और ज्ञान के आधार पर किए हुए निश्चय में क्या फ़र्क है? ज्ञान से किया हुया निश्चय बहुत सुंदर होता है, मन को जीतने की तमाम चाबियाँ होती हैं, नींव बहुत मज़बूत होती है। वहाँ पर मन का नहीं चलता।
ब्रह्मचारी आप्तपुत्र कैसे होने चाहिए? उपदेश दे सकें या न भी दे सकें, उसमें दिक्कत नहीं है। लेकिन सिद्धांत को पकड़े रखना पड़ेगा। दूसरा, आप्तपुत्रों द्वारा किसी के साथ कषाय नहीं होने चाहिए। सभी के साथ अभेदता रहनी चाहिए। सामनेवाला भेद डालता रहे, तब भी वह अभेदता ही रखे।
६. 'खुद' खुद को डाँटना 'हम' अपने आपको हमेशा ही पुचकारते रहे हैं। बड़े से बड़ी गलतियाँ करें, तो भी ढकते रहते हैं उसे! फिर क्या दशा होगी?! कभी 'हमने' अपने आपको डाँटा है? प्रकृति की अटकण (जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढ़ने दे)के रूप में हुए विषय दोषों को निकालना हो तो उसे कितना ही उलाहना देना पड़ता है ! रुलाना पड़ता है। अलग रहकर खुद ही खुद को डाँटे तो उसका राह पर आ जाएगा न?! 'हम' अपने आप के साथ एक रहकर यानी एक होकर काम करेंगे तो हमें भी भुगतना पड़ेगा और अलग रहकर काम लेंगे तो भुगतना नहीं पड़ेगा।
परम पूज्य दादाश्री ने खुद से अलग रहने के लिए बहुत ही सुंदर अलग अलग प्रयोग बताए हैं। उसमें भी अरीसा (दर्पण) सामायिक यानी कि अरीसे में देखकर अपने आप से बातचीत करने का प्रयोग, प्रकृति को डाँटना आदि।
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