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तो तुरंत उखाड़कर फेंक देना। नहीं तो वह पोल आराम से शादी करवा देगी!
मन जड़ है। उसके साथ कुशलता से काम निकाल (निपटारा) लेना चाहिए। जिस तरह छोटे बच्चे को लॉली पॉप देकर पटाकर मन चाहा करवा लेते हैं, उसी तरह मन को बार-बार समझा-पटाकर विषय में से ब्रह्मचर्य की ओर मोड़ लेना चाहिए।
५. नहीं चलना चाहिए, मन के कहे अनुसार
दो रोटी खाने का नियम रखा हो और फिर मन के कहे अनुसार चलें तो नियम टूट जाता है। मन तो बहुत कहेगा, 'खाओ, खाओ' लेकिन नहीं। अगर उसका मान लें तो फिर मन ढीला पड़ जाएगा। जो मन के कहे अनुसार चलता है, उसका ब्रह्मचर्य टिकता ही नहीं। तभी तो कबीर साहब ने कहा है, 'मन का चलता तन चले ताका सर्वस्व जाए।' मन के कहे अनुसार चलनेवाले का भरोसा नहीं कर सकते। उसकी लॉ-बुक ही अलग होती है। स्वच्छंद होता है।
मन सामायिक और प्रतिक्रमण नहीं करने देता। पोल मारता है। ध्येय के अनुसार चलना है, मन के कहे अनुसार नहीं! मन का और ध्येय का क्या लेना-देना। स्ट्रोंग निश्चयवाला मन की नहीं सुनता।
ब्रह्मचर्य का निश्चय हो लेकिन शादी का कर्म पीछे पड़े तो? शादी ही करवा देगा न! वहाँ ज्ञान से ही समाधान होगा। ज्ञान तो अच्छे-अच्छे कर्मों को मिटा दे!
ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले का माइन्ड वेवरींग हो तो भी उसमें बरकत नहीं आएगी। मन का मानना ही नहीं चाहिए। अपने अभिप्राय के अनुसार चलना चाहिए। ब्रह्मचर्य में तो छोटे से छोटे अवरोधों में भी जागृति रखनी चाहिए। वहाँ स्ट्रोंग रहना चाहिए। वहाँ एक भी पोल नहीं चलेगी। वर्ना ध्येय को उड़ा देगी! मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार सभी ध्येय के विरोधी हो जाएँ, फिर भी अगर स्ट्रोंग रहे तो सभी को ठंडा होना पड़ेगा। लेकिन सिद्धांत को पकड़े रहने के लिए पहले से ही सजग रहना ज़रूरी है। हम चेतन हैं और मन जड़, तो मन का कभी सुनना चाहिए?
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