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जैन विद्या के आयाम खण्ड
(१) कार्यालय में एक कुशल एवं कर्मठ निदेशक के रूप में तथा
(२) कार्यालय के बाहर एक शुभचिन्तक मित्र के रूप में
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अपरनाम - विनयसागर
डॉ. बशिष्ठ नारायण सिन्हा *
आदरणीय डॉ० सागरमल जी जैन से मेरा परिचय सन् १९७९ में हुआ, जब उन्होंने पार्श्वनाथ विद्यापाठ के निदेशक के पद को सुशोभित किया था। उनकी सहज सहजता एवं उदार सामाजिकता के कारण परिचय में प्रगाढ़ता आती गई और वह आत्मीयता में परिणित हो गयी। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पुराने छात्र होने के नाते संस्थान के कार्यालय तथा पुस्तकालय में मेरा जाना आना लगा ही रहता है। अतः निदेशक के रूप में जैन साहब को कार्य करते हुए देखने के अवसर मिलते आ रहे हैं। मैंने उन्हें दो रूपों में पाया है
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आश्चर्य तो मुझे तब हुआ जब यह ज्ञान हुआ कि हमारे सामने एक उच्च कोटि के विद्वान् तथा कुशल निदेशक के रूप में दिखाई पड़ने वाले डॉ० सागरमलजी जैन कभी एक व्यापारी थे। उन्होंने अपना जीवन संघर्ष वाणिज्य के क्षेत्र में किया था। साथ ही पारिवारिक परिस्थिति वस उन्हें अपनी अल्पायु में ही अपनी कौटुम्बिक व्यवस्था को संचालित करने तथा उसे सुदृढ़ बनाने का गुरुतर भार उनकी कांध पर आ पड़ा था। इसमें कोई शक नहीं है कि उन्होंने अपना दायित्व समुचित ढंग से निभाया किन्तु उनका मन व्यापार से हटकर विद्या के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए उत्सुक हो उठा । नियमित ढंग से विद्याध्ययन हेतु विद्यार्थी सागरमलजैन को ससुराल जाना पड़ा। कहा जाता है कि ससुराल में लोग प्रायः श्रृंगारिकता एवं रसिकता के विविध रूपों का बोध करते हैं किन्तु विचित्रता तो इस बात की है कि इन विद्यार्थी को युवापन की स्वाभाविक मानसिकता अपने वश में नहीं कर सकी और ससुराल में ही वहाँ की उच्च पाठशाला में विद्यार्थी जैन ने नियमित छात्र के रूप में अध्ययन शुरू कर दिया। यद्यपि वह प्रारम्भ विभिन्न कारणों से सुचारु ढंग से आगे गतिशील नहीं हो सका । पर विद्यार्थी की जिज्ञासा दिन ब दिन बढ़ती ही गई। सागरमल जी ने स्वाध्यायी छात्र के रूप में विभिन्न संस्थाओं से विशारद आदि अनेक उपाधियां अर्जित की। वे एम० ए० हुए पी-एच०डी० हुए और फिर दर्शन के प्रवक्ता के रूप में कार्य करने लगे । इस तरह अपनी मेहनत तथा ज्ञान के प्रति निष्ठा के कारण डॉ० सागरमल जी जैन धर्म-दर्शन के क्षेत्र में चिन्तनमनन की उस ऊँचाई पर पहुंच चुके हैं जिस पर बहुत कम लोग पहुँच पाते हैं ।
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डॉ० सागरमल जी ने व्यापार से हटकर अपने को माँ सरस्वती के एक सच्चे सपूत के रूप प्रस्तुत किया है। किन्तु उनके मन में तनिक भी न तो उसकी सैद्धान्तिकता से विरोध है और न ही उसकी व्यावहारिकता से वे बणिकपुत्र होने में गर्व महसूस करते हैं। कई बार उनके मुख से ऐसा सुनने का अवसर मिला है मैं बनियाँ हूँ या मैं बनियाँ का बेटा हूँ, ऐसा कहकर वे स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि उन्हें क्रय-विक्रय, लेन-देन, नाप-तौल आदि में कोई मात नहीं दे सकता है । अतः वे उस व्यक्ति को सचेत कर देते हैं जो उन्हें भुलावा देना चाहता है ।
डॉ० साहब की सामाजिकता का तो कहना ही क्या। श्वेताम्बर सम्प्रदाय हो अथवा दिगम्बर, स्थानकवासी संघ हो या तेरापंथी, या मूर्तिपूजक सबमें उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। वे सभी संघों एवं संगोष्ठियों में भाग लेते हैं और अन्य लोग जब पार्श्वनाथ विद्यापीठ में पधारते हैं तो उनके सत्कार में वे कोई असर नहीं छोड़ते। पार्श्वनाथ जन्मभूमि से सम्बन्धित वर्षों से चल रहा दिगम्बर श्वेताम्बर विवाद डॉ० साहब के सफल प्रयास से समाप्त हुआ जो उनकी सामाजिक सूझ-बूझ को उजागर करता है। जैन समाज ही क्या जैनेतर समाज में भी और खासतौर पर काशी की विद्वान् मंडली में वे एक प्रशंसनीय विद्वान् के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनके कारण पार्श्वनाथ विद्यापीठ को लोगों ने भलीभांति जाना है, सराहा है और इस पुरानी संस्था के अबतक के इतिहास में डॉ० सागरमल जैन के निदेशन काल को स्वर्णकाल कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
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