________________
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी, लिखने-पढ़ने की इच्छा ही मर चुकी थी। फिर भी डॉ० साहब की गुण ग्राहकता से अभिभूत होकर मैं उनका अनुरोध टाल नहीं सका । डॉ० सागरमल जैन ने संस्थान की प्रकाशन नीति के विरुद्ध होने पर भी उस घोर श्रृंगारिक प्राकृत काव्य को प्रकाशित करने का साहस ही नहीं दिखाया, मुझे तीन हजार एक रूपयों से पुरस्कृत भी किया।
इसी प्रकार मैंने 'गाथा सप्तशती' के हिन्दी रूपान्तर के साथ-साथ उसकी अस्पष्ट और अव्याख्यात अतिरिक्त गाथाओं की विशद् व्याख्या प्रस्तुत की तो उन्होंने हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करते हुये प्रकाशन की व्यवस्था में कोई संकोच नहीं किया। इसी सन्दर्भ में मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूं कि वज्जालग्ग कोई धार्मिक ग्रन्थ नहीं है और न गाथा सप्तशती में ही किसी निगूढ़ आध्यात्मिक तत्त्व का प्ररूपण है । यह तो डॉ० सागरमल जैन के विशाल हृदय में उत्तरंगित अगाधप्राकृत-प्रेम था जिसने उन्हें उक्त दोनों काव्यों के प्रकाशन की उत्प्रेरणा दी थी । वे प्राय: लेखकों को प्रोत्साहित किया करते थे, कदाचित् ही उन्होंने किसी को अपनी आलोचना से हतोत्साह किया हो । एक बार किसी पुस्तक की समीक्षा करनी थी। एक प्राकृत-बहुल नाटक का अनुवाद था वह मैंने पढ़कर उस की त्रुटियों पर उनका ध्यान केन्द्रित किया तो मुस्कराते हए कहने लगे- 'अरे त्रुटियाँ तो स्वाभाविक हैं, उनसे मुक्त कौन है? समीक्षा में त्रुटियों का उद्घाटन करने पर लेखक का हृदय दुःखी होगा, मनोबल टूट जायेगा, फिर वह कुछ लिखने का साहस ही नहीं जुटा पायेगा । हमारा काम तो साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना है।
प्रत्येक प्रकाशन सामग्री की प्रामाणिकता की परीक्षा करने में वे कभी नहीं चूकते थे । लाला हरजस राय स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ प्रेषित मेरे एक लेख में षट्खण्डागम की धवला टीका में निरूपित सत्य के दस भेदों का उल्लेख पाकर मूल ग्रन्थ में उद्धृत अंश को प्रत्यक्ष स्वयं देख कर ही सन्तुष्ट हये थे ।
- डॉ० सागरमल जैन की सबसे बड़ी विशेषता है उनकी वैचारिक सहिष्णुता । वे सत्य को अनेक दृष्टियों से परखने का पूर्ण प्रयास करते है और अपनी स्थापनाओं की उचित आलोचना का उन्मुक्त हृदय से स्वागत करते हैं, बुरा नहीं मानते। १९९३ ई० में अहमदाबाद में एक बृहद वैचारिक गोष्ठी का आयोजन था। उस समय में संस्थान में ही रहता था । डॉक्टर साहब ने गोष्ठी में पढ़ने के लिये एक निबन्ध लिखा था जिसमें ऋग्वेद की कई ऋचाओं में अर्हत् ऋषभदेव के उल्लेख की चर्चा थी। मैंने उसे पढ़ कर तीन पृष्ठों की एक टिप्पणी लिखी थी। वह टिप्पणी यद्यपि उनके विचारों के सर्वथा विपरीत थी, फिर भी उन्होंने उसे बड़ा महत्त्व दिया था । दस-बारह दिनों के पश्चात् अहमदाबाद जाते समय वे उक्त टिप्पणी को अपने साथ ले जाना चाहते थे, परन्तु बहुत खोजने पर भी अलग-अलग पन्नों पर लिखी होने के कारण वह कागजों के ढेर में कहीं खो गई थी, मिली नहीं। डॉक्टर साहब बड़ी देर तक पछताते रहे ।
वे उच्चकोटि के अनुसन्धित्सु विद्वान् हैं । उनकी जिज्ञासा का कहीं अन्त नहीं है । एक बार श्रमण-संस्कृति की चर्चा के प्रसंग में मेरे मुँह से निकल गया कि प्रारम्भ में हमारे सम्पूर्ण समाज का एक ही धर्म था । ऋषभदेव जी ने उसी में रहते हुये मोक्ष-मार्ग का उपदेश दिया था । वे मात्र तीर्थकर नहीं हैं, विष्णु के चौबीस अवतारों में भी उनकी गणना की गई है । पृथक् मत का प्रवर्तन तो तीर्थंकर सुमति ने किया था । उन्होंने कहा- 'इस तथ्य का कोई प्रमाण भी है या वैसे ही कह रहे हैं? मैंने कहा-'श्रीमद्भागवत' के पञ्चम स्कन्ध में यह बात लिखी है । उन्होंने तत्क्षण पुस्तकालय से श्रीमद्भागवत की एक प्रति मँगाकर उक्त स्थल को नोट कर लिया था ।
सम्पादन-कार्य में वे पूर्ण पटु है । स्वभाव से मृदु होने पर भी दायित्व-निर्वहण में वज्रादपि कठोर हो जाते हैं । श्रमण में प्रकाशित सामग्री की सुरक्षा के प्रति वे सर्वदा सचेत रहते थे । मेरे एक लेख का कुछ अंश उन्हीं के प्रतिवेशी और प्राय: मिलने-जुलने वाले किसी ख्यातनामा विद्वान् ने अपनी पुस्तक में ज्यों का त्यों छपवा लिया था। इसकी सूचना मिलने पर उन्होंने पूरा विवरण माँगा और मैंने जो कुछ भी लिखा उसे प्रकाशित करने में वैयक्तिक सम्बन्धों की चिन्ता नहीं की। वे संस्थागत शोध-छात्रों के अतिरिक्त बाहरी शोधार्थियों की भी सहायता करते रहते थे। जून १९९१ ई० की घटना है । मैं
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org