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जैन विद्या के आयाम खण्ड
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कान्फ्रेंस १८९४ में, फिर श्वेताम्बर कान्फ्रेस १९०३ में स्थापित हुए । छगनमल जी म०सा० की प्रेरणा से वाडीलाल मोतीलाल शाह ने स्थानकवासी समाज में श्रावक संगठन का अभियान चलाया और अखिल भारतवर्षीय जैन कान्फ्रेंस की स्थापना की। इसके सादड़ी अधिवेशन में सभी उपसंप्रदाय के साधु-साध्वियों श्रावकों ने आत्माराम जी म०सा० को अपना
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आचार्य मान लिया । इतने द्रविड़ प्राणायाम के पश्चात् जिस समन्वय की स्थापना जैन संघ कर पाया है वह प्रवृत्ति डॉ० जैन में जन्मजात, नैसर्गिक है। वे 'पर उपदेश कुशल' व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं आचरण करने वाले साधु पुरुष हैं। वे कथनी में कम, करनी में अधिक विश्वास करते हैं । इसीलिए एक ओर जहाँ वे मितभाषी हैं दूसरी तरफ कठोर परिश्रमी हैं । अस्वस्थावस्था में भी परिवार वालों की वर्जना की परवाह किए बिना वे नियमित रूप से कार्यालय जाते और निष्ठापूर्वक कर्तव्य निर्वाह करके ही घर लौटते हैं। उनके श्रम एवं स्वाध्याय के फलस्वरूप सैकड़ों लेख, पुस्तक पुस्तिकायें प्रकाशित हैं। उनकी प्रसिद्ध शोध रचना 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन', उनके सर्वधर्म समभाववादी मनोवृत्ति का ज्वलंत उदाहरण है । यह प्रवृत्ति आज के विघटन वादी युग की अत्यंत प्रासंगिक प्रस्तुत है। उनके पचासों शोध छात्र विविध स्थानों में उनकी विद्वत्ता का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होंने देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अपने कृि एवं विद्वत्तापूर्ण अभिभाषणों से जैन धर्म और हिन्दी भाषा की प्रभावना की है।
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यह संस्थान पू० सोहनलाल जी म०सा० की स्मृति में पू० काशीराम जी म० सा० एवं शतावधानी रतनचंद्र जी म० सा० नाम पर इनकी प्रेरणा से ही स्थापित हुआ । उन्होंने पंजाब में जैन धर्म का बड़ा व्यापक प्रचार किया । उन्हें लोग पंजाब केशरी की उपाधि से अभी भी स्मरण करते हैं। उनका वरदहस्त और डॉ० जैन के कठिन अध्यवसाय का मणिकांचन योग पाकर यह संस्थान हीरक के बाद शताब्दी समारोह अवश्य मनायेगा। इसी विश्वास के साथ मैं इस संस्थान तथा विशेषरूप से डॉ० सागरमल उनके दीर्घ, स्वस्थ एवं यशस्वी जीवन की कामना करता हूँ तथा जैन के महान व्यक्तिव व कृतित्व के सम्मुख नत मस्तक हूँ ।
डॉ० सागरमल जैन: कुछ संस्मरण
आचार्य विश्वनाथ पाठक *
उस दिन पार्श्वनाथ विद्यापीठ (पुराना पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान) के परिसर में प्रवेश करते ही चारों ओर एक अभूतपूर्व निस्तब्धता और रिक्तता का आभास हुआ। मेरी दृष्टि सामने स्थित निदेशक आवास पर पड़ी तो वहाँ भी कोई चहलपहल नहीं थी, दरवाजे बन्द थे, सन्नाटा छाया था। सोचने लगा-आखिर बात क्या है ? तभी जगन्नाथ जैन छात्रावास की ओर से आकर प्रणाम करते रामनयन को देखकर पूछ बैठा- कहो, बब्बा क्या समाचार है ?
'बहुत खराब समाचार है, साहब ।' बब्बा ने कहा ।
'क्या हो गया' मैंने फिर पूछा ।
'साहब रिटायर होकर अपने घर चले गये जहाँ कोई राजा ही नहीं रह गया वहाँ अच्छा समाचार कैसे हो सकता
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