Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आचार्य हरिभद्र इस ग्रन्थ पर एक वृत्ति भी 100 पद्य प्रमाण रचि है, जो 1175 श्लोक
परिमाण है।
शास्त्रवार्त्ता- समुच्चय
आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन - समुच्चय में छः दर्शनों का निरूपण किया है, जबकि शास्त्रवार्त्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों का समीक्षात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है । षड्दर्शन-समुच्चय की अपेक्षा यह रचना विस्तृत है। इसमें 702 श्लोक हैं तथा यह संस्कृत भाषा में रचित है। यह कृति आठ स्तवकों में विभक्त है । षट्दर्शनों में से प्रसिद्ध दर्शन चार्वाक दर्शन के भौतिकवाद की प्रथम स्तवक में समीक्षा की गई है। द्वितीय स्तवक में एकान्त स्वभाववाद का विवेचन किया गया है। तृतीय स्तवक में ईश्वरवाद एवं सृप्ति-कर्तृत्ववाद की समीक्षा है। चतुर्थ स्तवक में विशेष रूप से सांख्य अभिमत प्रकृति एवं पुरुष की अवधारणाओं की समीक्षा है, साथ ही बौद्धों के क्षणिक्वाद्, शून्यवाद, विज्ञानाद्वैत की समीक्षा की गई है।
पंचम स्तवक में बौद्धों के ही विज्ञानवाद की विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की गई है। षष्ठ स्तवक में बौद्धों के क्षणिकवाद की ही चर्चा है। सप्तम स्तवक में आचार्य हरिभद्र ने जैनों के नित्यानित्यवाद की स्थापना की है तथा अद्वैतवाद (वेदान्त) की समीक्षा की है। अष्टम स्तवक में मोक्ष मार्ग व मोक्ष के विषय में विवेचन किया गया है और मीमांसकों के सर्वज्ञता - प्रतिषेधवाद की तथा शब्द का स्वरूप बताते हुए बौद्ध-शब्दार्थ सम्बन्धी प्रतिषेधवाद की समीक्षा की गई है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें बौद्ध, चार्वाक, न्याय आदि दर्शनों की समीक्षा होते हुए भी उनके प्रवर्त्तकों के प्रति विशेष आदरभाव प्रकट किया गया है और प्रतिपादित सिद्धान्तों का जैन- दृष्टि के साथ अति सुन्दर समन्वय भी किया गया है।
इस ग्रन्थ की रचना तत्त्व-संग्रह को समक्ष रखकर हुई है। इसमें जिन-दर्शनों का निराकरण किया गया है, उनका क्रम दर्शनों के विभाग के आधार पर नहीं है, अपितु दार्शनिक-विषयों के विभागों के आधार पर है।
अनेकान्तवादप्रवेश
आचार्य हरिभद्र की यह कृति अनेकान्तवाद - जयपताका ग्रन्थ का संक्षिप्त रूप है । अन्तर केवल इतना ही है कि प्रस्तुत ग्रन्थ सामान्य बुद्धि-वर्ग हेतु लिखा गया है, जबकि अनेकान्त जयपताका प्रबुद्ध वर्ग के लिए है। यह ग्रन्थ जयपताका के समान ही है । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना संस्कृत में है।
अनेकान्तजयपताका
जैन-दर्शन का मूल सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। प्रस्तुत ग्रन्थ अनेकान्तवाद के विषय को समझाने के लिए समीक्षात्मक शैली में लिखा गया एक विशिष्ट ग्रन्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेकान्तवाद को अन्य
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