________________ नषधीयचरिते एतत् निवेदितं निवेदनं धिक् , हि यतः माधवः सज्जना: निजी स्वकीयाम् उपयोगिताम् उपकारिता ( कर्मधा० ) फलेन कारेंण क्रियात्मकतयेत्यर्थः ब्रवते कथयन्ति कार्य कृत्वा बोधयन्तीति भावः। न तु कण्ठेन वाचा ववत, वाग्धि मिथ्यापि मवति / / 48 / / ___ व्याकरण-निवेदितम् नि+/विद्+पिच्+क्तः ( मावे ) / निवेदितम् धिगर्थेऽत्र द्वितीया। अनुवाद-इस विषय में केवल तुम्हारी स्वीकृति प्राप्त करने हेतु ( मेरे ) इस निवेदन को धिक्कार है, क्योंकि सज्जन लोग ( तो ) कार्य द्वारा अपनी उपयोगिता दिखाते हैं, मुँह से बोलकर नहीं / / 48 // टिप्पणी-यहाँ पूर्वार्धवाक्य-गत विशेष बात का उत्तरार्ध वाक्य-गत सामान्य बात से ममथन किया गया है, अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है। शम्दालंकार ‘धिग' 'धिगि' में छेकानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। तदिद विशदं वचोमृतं परिपीयाभ्युदितं द्विजाधिपात् / अतितृप्ततया विनिममे स तदुद्गारमिव स्मितं सितम् // 49 // भन्वयः-म द्विजाधिपात् अभ्युदितम् तत् इदम् विशदम् वचोऽमृतम् परिपीय प्रतितृप्ततया सितम् सदुद्गारम् इव सितम् स्मितम् विनिर्ममे / टीका–स नलः द्विजानां पक्षिणाम् अधिपः श्रेष्ठः हंस इत्यर्थ एव दिजानाम् नक्षत्राणाम् अधिपः श्रेष्ठश्चन्द्र इत्यर्थः तस्मात् ( 10 तत्पु० ) अभ्युदितं निःसृतं तत् पूर्वोक्तम् इदम् प्रत्यक्षमनुभूयमानं विशदं स्पष्टम् अथ च श्वेतं वचो वचनम् एवामृतं पीयूषम् ( कर्मधा० ) परिपीय पूर्णतया पोत्वा अतिशयेन तप्तः सृहितः ( प्रादि तत्पु० ) तस्य मावः तत्ता नया सित ३३तं तस्य परिपीतस्यामृतस्य सदगारम ( प. तत्पु० ) व सितं श्वेतं स्मितं मन्दहासं विनिर्ममे चकार / अमृतं श्वेतं भवति तददगारेणापि श्वेतेनैव भवितव्यमिति श्वेत-स्मिते तदुद्गारस्य कल्पना / / 46 / / व्याकरण-द्विजः द्वाभ्यां जायते इति द्वि+/जन् +डः। पक्षी उदर और अंडा-दोनों से उत्पन्न होने से द्विज कहलाता है नत्र दिर्जायते दो वार उत्पन्न होता है, दिन में नष्ट हो जाता है, रात्रि में फिर उत्पन्न हो जा / है। उद्गारः उत् +/गृ+घञ् ( भावे ) / विनिर्ममे वि+ निर्+मा+लिट् / . अनवाद-उस ( नल ) ने द्विनाधिप ( श्रेष्ठ पक्षी-हंस ) रूपी द्विजाधिप ( श्रेष्ठ नशत्र = चन्द्रमा) से निकले उस विशद ( स्पष्ट ) वचन रूपी विशद ( श्वेत ) अमृत का छककर पान करके अतितृप्त हो जाने के कारण उसकी श्वेत डकार-जैसी श्वेत मुस्कान प्रकट की / / 49 / / टिप्पणी-यहाँ द्विजराज ( हंस ) पर द्विजराजत्व ( चन्द्रत्व ) का आरोप वचन में अमृतत्व का कारण बनने से श्लिष्ट परम्परित रूपक है; उसका स्मित पर उद्गारत्व की कल्पना से बनने वाली उत्प्रेक्षा के साथ अङ्गाङ्गिमाव संकर है। शब्दालंकार 'स्मितं' 'सितं' में पद गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है।