________________ नैषधीयचरिते टिप्पणी-यहाँ नारायण ने अर्थान्तरन्यास अलंकार कहा है, किन्तु हमारे विचार से अर्थान्तर. न्यास वही हुआ करता है, जहाँ समर्थ्य और समर्थक वाक्यों में सामान्य-विशेषभाव सम्बन्ध हो। यहाँ तो दोनों वाक्य विशेष-वाक्य है। मल्लिनाथ ने विभिन्न धर्मोवाले दोनों वाक्यों का परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्वभाव द्वारा सादृश्य में पर्यवसान करके दृष्टान्त अलंकार माना है। हमारे विचार से 'राजते' 'दीप्यते' इन विभिन्न शब्दों द्वारा एक ही धर्म के प्रतिपादित होने से यहाँ प्रतिवस्तूपमा मी है। अतः यहाँ दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा का संदेह संकर है। शब्दालंकार 'किल' 'किल' में यमक 'वीर' 'विरा' में छेकानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तव रूपमिदं तया विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः / इयमृद्धधना वृथावनी स्ववनी संप्रवदपिकापि का // 45 // भन्धयः-(हे राजन् ! ) तव इदं रूपम् तया विना अवकेशिनः पुष्पम् इव विफलम् / ऋद्धधना श्यम् अवनी वृथा। सम्प्रवदात्पका स्व-वनी अपि का ? टोका-(हे राजन् ! ) तव ते इदं दृश्यमानं रूपं सौन्दर्य तया दमयन्त्या विना अवकेशिनः वन्ध्य वृक्षस्य ( 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः) पुष्पं कुसुमम् इव विफल फलरहितं, व्यर्थम् / ऋद्धं समृद्धं पूर्वमिति यावत् धनं वित्तं ( कर्मधा० ) यस्यां तथाभूता (ब० वी० ) इयम् एषा अवनी पृथिवी वृथा व्यर्था; सम्प्रवदन्तः कूजन्तः पिकाः कोकिलाः (कर्मधा० ) यस्यां तथाभूता (ब० वी० ) स्वा स्वकीया बनी वाटिका विलासार्थ निर्मितेति शेषः (कर्मधा० ) अपि का न कापीति काकुः, तुच्छेत्यर्थः। दमयन्तीमप्राप्य तव रूपादि सर्वमेव व्यर्थीमति भावः / / 45 / / व्याकरण-ऋद्ध ऋध + क्तः ( कर्तरि ) / वनी गौरादित्वात् /वन+ङीष् / सम्प्रवद+ सम्+ +Vवत् +शत / अनुवाद-(हे राजन् ! ) तुम्हारा यह सौन्दर्य उस ( दमयन्तो) के विना वन्ध्य वृक्ष के पुष्प की तरह विफल है; जन-सम्पत्ति से भर-पूर ( तुम्हारी ) यह पृथिवी वृथा है; कोयलों से गुज्जायमान ( तुम्हारी ) अग्नी वाटिका भी क्या है ? / / 45 / / टिप्पखी-यहाँ दमयन्ती के विना नल के रूप, पृथिवी और वाटिका की व्यर्थता अर्थात् अरम्यता बताई गई है, इसलिए विनोक्ति है। उसके साथ 'पुष्पमिवावकेशिनः' में बताई गई उपमा की संसृष्टि है। शब्दालंकार 'बनी' 'बनी' और 'पिका' 'पिका' में यमक और अन्यत्र वृत्यानुपास हैं। अनया सुरकाम्यमानया सह योगः सुलमस्तु न स्वया / घनसंवृतयाम्बुदागमे कुमुदेनेव निशाकरत्विषा // 46 // भन्वयः-सुर-काम्यमानया नया सह योगः अम्बुदागमे धन संवृतथा निशाकर-त्विषा ( सह योगः ) कुमुदेन इव त्वया न सुलभः / टीका-सुरैः देवः ( अपि ) काम्यमानया अभिलष्यमाणया ( तृ. तत्पु. ) अनया दमयन्त्या सइ साध योगः सम्बन्ध; अम्बुदानाम् अम्बु जलं ददतीति तथोक्तानाम् ( उअपद तत्पु० ) मेवानाम् आगमे आगमने (10 तत्पु० ) वर्षाकाले इत्यर्थः धनैः मेधैः संवृतया समाच्छन्नया ( तृ. तत्पु०) निशां