Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास : तोता भी राम का नाम लेता है तो क्या वह मुक्त हो जाता है ? नहीं। अत: भक्ति के लिए भाव अनिवार्य है -
पंडित वाद बदै सो झठा।
राम कहे दुनिया गति पादै, खांड कहैं मुख मीठा ।। सन्तों का हरि तब प्रसन्न होता है, जब उसे प्रीति के साथ भजा जाए। भूख के बिना जैसे अन्न का स्वाद नहीं मिलता; उसी तरह प्रीति के बिना भक्ति बेस्वाद होती है -
प्रीति सहित जे हरि भजें, तब हरि होहिं प्रसन्न। .
सुन्दर स्वाद न प्रीति बिन, भूष बिना ज्यों अन्न । सन्तों की भक्ति के सम्बन्ध में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का यह कथन द्रष्टव्य है -
"सन्तों की भक्ति साधना स्वभावतः निर्गुण एवं निराकार की उपासना के अन्तर्गत आती है और उसे "अभेद भक्ति” का भी नाम दिया जाता है; किन्तु उन्होंने अपने इष्ट “सत्" को कोरे अशरीरी वा भावात्मक रूप में ही नहीं समझा है। उनके तद्विषयक प्रकट किये गए उद्गारों से जान पड़ता है कि उसे सगुण निर्गुण से परे बतलाते समय उन्होंने एक प्रकार का अनुपम व्यक्तित्व भी दे डाला है। वे उसे सर्वव्यापक राम कहकर उसका विश्व के प्रत्येक अण में विद्यमान रहना तथा सभी के रूपों में भी दीख पड़ना मानते हैं। इसके सिवाय वे उसे सद्गुरु, पति, साहब, सखा आदि भी समझते हैं। इन भावों के साथ उसके प्रति अनेक प्रकार की बातें कहा करते हैं। वे उसमें दयादाक्षिण्यादि गुणों का आरोप करते हैं। प्रत्यक्ष न होने पर विरह के भाव व्यक्त करते हैं और उससे मुक्ति की याचना भी किया करते हैं। फिर भी वे केवल भजन भाव में ही मग्न रहने वाले “भक्त" नहीं जान पड़ते। अपने व्यक्तिगत जीवन में सदाचार-सम्बन्धी सामाजिक नियमों का पालन करना भी आवश्यक मानते हैं। वे लोग अनासक्त प्रवृत्ति मार्गी एवं कर्मठ व्यक्ति हैं।"
भक्तिमार्ग भाव की साधना है। अनेक सांसारिक प्रपंचों में पड़ा हुआ मनुष्य अपने वास्तविक “स्वभाव को भूल जाता है। अपने वास्तविक स्वभाव को जानना नि:सन्देह अति कठिन है। हम जो नहीं हैं, उसे प्रकट करते फिरते हैं; जो वास्तव में है, उसकी खुद भी जानकारी नहीं रखते। किसी प्रकार अपने वास्तविक भाव या स्वभाव को जान लेते, तो संसार के समस्त पचड़े एवं कष्ट स्वयं ही समाप्त हो जाते । अपने भाव को जानने के लिए सम्यक् पुरुषार्थ एवं