Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास : विवक्षा अविवक्षा, मुख्य-गौण वाणी के भेद हैं, वस्तु के नहीं। वस्तु तो पर से निरपेक्ष होती है, उसमें समस्त गुण सर्वत्र समानरूप से रहते हैं। उनमें मुख्य गौण का भेद संभव नहीं है, किन्तु वाणी में समस्त गुणों को एक साथ कहने की सामर्थ्य न होने से कथन में मुख्य गौण का भेद किया जाता है।
प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्म-युगल होते हैं, जिन्हें स्याद्वाद अपनी सापेक्ष शैली में प्रतिपादित करता है । इस सम्बन्ध में क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में लिखते हैं - अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत् कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को । मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता को अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका निषेध न होने पावे, इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है।"
इस प्रकार स्याद्वाद एकान्त नयों के विष को दूर करने वाला महान मंत्र है । जिस प्रकार सिद्ध व्यक्ति रस के द्वारा कुधात को भी अनुपम स्वर्ण बना देता है; उसी प्रकार स्याद्वादी स्याद्वाद के द्वारा प्रत्येक नय को सत्य रूप ही अनुभव करते है। जीव-विर्षे सातों भंग निरूपण :
जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है। पर्यायदृष्टि से अनित्य है। एक साथ द्रव्य पर्याय दृष्टि से नित्यानित्य है। पूर्ण रूप से कहा नहीं जा सकता इसलिए अवक्तव्य है। द्रव्यदृष्टि तथा सर्वथा न कहने की अपेक्षा नित्य अवक्तव्य, पर्याय दृष्टि एवं सर्वथा न कहने की अपेक्षा अनित्य अवक्तव्य, द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि
1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, जिनेन्द्र वर्णी, भाग 4 पृष्ठ 497 2. इहि विधि ये एकान्त सों, सात भंग प्रम खेत ।
स्यादाद पौरुष घौ, सब प्रम नाशन हेत ॥ स्याद शब्द को अर्थ जिन, को कथंचित जान । नागरूप नय विषहरन, यह जग मंत्र महान ॥ ज्यो रसविद्ध कुधातु जग, कंचन होय अनूप । स्थादाद संजोग, सब नय सत्य स्वरूप ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 9 पृष्ठ 78