Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन वेश्या सेवन निषेध : पापिनी वेश्या धन के लिए प्रेम करती है। यदि व्यक्ति के पास धन नहीं बचे तो सारा प्रेम तिनके की तरह तोड़कर फेंक देती है। वेश्या अधम व्यक्तियों के होठों का चुम्बन करती है अथवा उनके मुँह से निस्सृत लार आदि अपवित्र वस्तुओं का स्वाद लेती है । सम्पूर्ण शुचिता वेश्या के छूने से समाप्त हो जाती है। वेश्या सदा बाजारों में मांस-मदिरा खाती-पीती फिरती है। जो व्यसनों में अंधे हो रहे हैं, वे वेश्याव्यसन से घृणा नहीं करते हैं। जो मूर्ख व्यक्ति वेश्याव्यसन में लीन हैं, उन्हें बारम्बार धिक्कार है।' भूधरदास द्वारा इसी तथ्य को अन्य स्थान पर इस प्रकार कहा गया है - धिक वेश्या बाजारनी, (ज्ञानी) रमती नीचन साथै रे । धनकारन तन पापिनी (ज्ञानी) बैचे व्यसनी हाथै रे || शिकार निषेध :― 395 मृग जंगल में रहता है, अत्यन्त गरीब है, अपने प्राण ही उसकी प्राणों से प्यारी पूँजी है, डरपोक स्वभाव वाला है, सभी से डरता रहता है, किसी से द्रोह नहीं करता है, कभी किसी का बुरा नहीं सोचता है, बेचारा अपने दाँतों में तिनका लिये रहता है, किसी पर नाराज नहीं होता है, किसी से अपने पालन-पोषण की अपेक्षा नहीं रखता है, परोक्ष में किसी के दोष नहीं कहता फिरता अर्थात् पीठ पीछे परनिन्दा करने का दुर्गुण भी उसमें नहीं है। फिर भी रे रे कठोर हृदय ! अपने जरा से स्वाद के लिए उस मृग को मारने के लिए तेरा हाथ कैसे उठता है 23 इसी बात को इन शब्दों में भी कहा गया है - अति कायर सबसों डरै, (ज्ञानी) दीन मिरग वनचारी रे। तिनपै आयुध साधते (ज्ञानी) हा अति क्रूर शिकारी रे ॥ * 1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 54 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 86 3. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 55 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 86

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487