Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकदि भूधरदास
तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उलंग खरे ही । दास खवास अवास अटा धन जोर करोरन कोश भरे ही ।। ऐसे तो कहा भयो हेर ! सोनिले उति अन्त करे ही।
धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम घरे ही ॥'
12. राज्य और लक्ष्मी :- भूधरदास राज्य को महापापों का कारण एवं आपस में वैर बढ़ानेवाला मानते हैं। लक्ष्मी को वेश्या के समान चंचल स्वाकरते हैं -
राज्य समाज महा अघकारन, बैर बढ़ावन हारा । वेश्या सम लछमी अति चंचल, याका कौन पतिथारा ॥
13. मोह :- कवि मोह को महान शत्रु मानकर शरीर को कारागृह, स्त्री को बेड़ी तथा परिवार के लोगों को पहरेदार निरूपित करता है -
मोह महारिपु बैर विचारो,
जग जिय संकट टारे । परिजन जन रखवारे |
तन कारागृह वनिता बेड़ी,
14. भोग एवं तृष्णा : पाँच इन्द्रियों के विषय-भोगों को भोगने से इच्छा तृप्त नहीं होती, अपितु और अधिक बढ़ती है - ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावैं । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंकै लहर जहर की आवैं ॥ मैं चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे ।
तो भी तनिक भये नही पूरन, भोग मनोरथ मेरे ॥' इसलिये कवि भोगों का निषेध करता है -
तू नित चाहत भोग नए नर ! पूरव पुन्य विना किम है। कर्म संजोग मिले कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सकै है ।
1. जैनशतक, भूघरदास, छन्द 33
2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 18
3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 18
4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 3, पृष्ठ 18
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