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________________ 410 महाकदि भूधरदास तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उलंग खरे ही । दास खवास अवास अटा धन जोर करोरन कोश भरे ही ।। ऐसे तो कहा भयो हेर ! सोनिले उति अन्त करे ही। धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम घरे ही ॥' 12. राज्य और लक्ष्मी :- भूधरदास राज्य को महापापों का कारण एवं आपस में वैर बढ़ानेवाला मानते हैं। लक्ष्मी को वेश्या के समान चंचल स्वाकरते हैं - राज्य समाज महा अघकारन, बैर बढ़ावन हारा । वेश्या सम लछमी अति चंचल, याका कौन पतिथारा ॥ 13. मोह :- कवि मोह को महान शत्रु मानकर शरीर को कारागृह, स्त्री को बेड़ी तथा परिवार के लोगों को पहरेदार निरूपित करता है - मोह महारिपु बैर विचारो, जग जिय संकट टारे । परिजन जन रखवारे | तन कारागृह वनिता बेड़ी, 14. भोग एवं तृष्णा : पाँच इन्द्रियों के विषय-भोगों को भोगने से इच्छा तृप्त नहीं होती, अपितु और अधिक बढ़ती है - ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावैं । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंकै लहर जहर की आवैं ॥ मैं चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे । तो भी तनिक भये नही पूरन, भोग मनोरथ मेरे ॥' इसलिये कवि भोगों का निषेध करता है - तू नित चाहत भोग नए नर ! पूरव पुन्य विना किम है। कर्म संजोग मिले कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सकै है । 1. जैनशतक, भूघरदास, छन्द 33 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 18 3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 18 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता अधिकार 3, पृष्ठ 18 - 3
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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