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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन ओ दिन चार कौ ब्योंत बन्यौं कहुँ, तो परि दुर्गति में पछिते हैं। याहि यार सलाह यही कि, गई कर जाहु निवाह न है है ।' (तृष्णा) आशारूपी नदी का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि - मोह से महान ऊँचे पर्वत सौं ढर आई, तिहुँ जग भूतल में याहि विसतरी है। विविध मनोरथ मैं भूरि जल भरी हैं तिसना तरंगनि सौं आकुलता घरी है । परे भ्रम - भौर जहाँ राग-सो मगर तहाँ चिंता तट तुंग धर्मवृच्छ ठाय ढरी है। ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताकौं, धन्य साधु धीरज - जहाज चढ़ि तरी है ॥ 2 कवि शरीर के शिथिल होने पर भी तृष्णा को निरन्तर वृद्धिंगत ही मानता है। 15. देह :- कवि ने कई स्थानों 4 पर देह के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया है, परन्तु इस वर्णन का उद्देश्य देह से विरक्ति कराना ही है। उदाहरणार्थ 1. . जैनशतक भूधरदास, छन्द 19 2, जैनशतक, भूघरद्वास, छन्द 76 3. (क) काँपत नार बहे मुख लार, महामति संगति छोरि गई है। अंग उपग पुराने परे, तिशना उर और नवीन भई है । 411 (ख) तेज घट्यौ ताव घट्यौ जीतव को चाव घट्यो, और सब घट्‌यो एक तिसना दिन दूनी सी ॥ जैनशतक, भूधरदास, छन्द 38-39 4. (क) देह अपावन अधिर घिनावन, यामै सार न कोई। सागर के जलसों शुचि कीजै, तो भी शुचि नहीं होई ॥ सात कुधातमई मलमूरति चाम लपेटी सोहै । ३५ अंतर देखत या सम जग में, और अपावन को है । पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 18 (ख) दिपै चाम चादर मड़ी, हाड़ पींजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिनगेह ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 30 (ग) अशुचि अस्थि पिंजर तन येह, चाम वसन बेढ़ो विन गेह! चेतन चिरा तहाँ नित रहे, सो बिन ज्ञान गिलानि न गहे ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 64
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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