Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 448
________________ 416 रागी - विरागी के विचार में बड़ोई भेद जैसे भटा पच काहू काहू को बयारे है | t - वीतरागी होने की भावना भाते हुए कवि का कथन है कब गृहवास सों उदास होय वन सेऊ, वेॐ निजरूप गति रोकूँ मन करी की। रहि हौं अडोल एक आसन अचल अंग, सहि हौं परीसा शीत- घाम- मेघ - झरी की ॥ सारंग समाज खाज कमध खुजे हैं आनि, ध्यान- दल जोर जीतू सेना मोह- अरी की। एकल बिहारी जथाजात लिंगधारी कब, होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की ॥ भूधरदास ने संसार, और भोगों के विरक्ति के लिए उनके स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया है। साथ ही बारह भावनाओं का चिन्तन भी किया है। 1 जिनका वर्णन पूर्व में धार्मिक विचारों के अन्तर्गत किया जा चुका है।" महाकवि भूषरदास : " रागी जीव ( मिथ्यादृष्टि ) को धर्मोपदेश देना निरर्थक मानते हुए कवि का कथन है - 1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 18 2. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 17 3. प्रकीर्ण पद साहित्य एवं बज्रनाभि चक्रवर्ती की वैराग्य भावना आयुहीन नर को थथा औषधि लगे न लेश । त्यों ही रागी पुरुष प्रति वृथा धर्म उपदेश ॥" पार्श्वपुराण, कलकता, पृष्ठ 17 -18 4 पार्श्वपुराण, कलकत्ता पृष्ठ 30 एवं 64 1 5. इसी शोधप्रबन्ध, अध्याय 7 6 पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पृष्ठ 6

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