Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 450
________________ 418 महाकवि भूधरदास : चिन्तन यों दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी। खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंज की बाजी।।' परन्तु वास्तव में धन की प्राप्ति भाग्य के अनुसार ही होती है - जो धनलाभ लिलार लिख्यौ, लधु दीरघ सुक्रत के अनुसारै। सो लहि है कछु फेर नहीं, मरूदेश के ढेर सुमेर सिधारै ।। घाट न बाढ़ कहीं वह होय कहा कर आवत सोच विचारै । कूप कियौं भर सागर में नर, गागर मान मिल जल सारै ।' अत: व्यक्ति को प्रत्येक स्थिति में सन्तुष्ट रहना चाहिये। 21. मन की पवित्रता :- भूधरदास बाह्य वेश-भूषा को बदलने की बात न कहकर मन को पवित्र करने की प्रेरणा देते है - भाई! अन्तर उज्जवल करना रे ॥ टेक ।। कपट कृयान तजै नहिं तबलो, करनी काज न सरना रे ।। जप तप तीरथ यज्ञ प्रतादिक, आगम अर्थ उतरना रे। विषय कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचि सों, किये पार उतरना रे। नाहीं है सब लोक रंजना, ऐसे वेदन वरना. रे ॥ कामादिक मन सों मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे। भूधर नोल वसन पर कैसे, केसर रंग उछरना रे ।' 22. हिंसा का निषेध - भूधरदास हिंसा को पाप का कारण, दुर्गति देने वाली तथा स्व और पर को दुःखदायी मानते हैं। हिंसा करम परम अध हेत, हिंसा दुरगति के दुख देत। हिंसासों भमिये संसार, हिंसा निज पर को दुखकार। 1. जैनशतक, भूधरदास, छन्द 32 2, जैनशतक, पूधरदास, छन्द 75 3. पद साहित्य (प्रकीर्ण पद ) भूधरदास 4 पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, पृष्ठ 10

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