Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
427
एवं आत्मसाधना का सार है; उसी प्रकार भूधरदास का काव्यादर्श जन्म-मरण के दुःखों एवं चार गति व चौरासी लाख योनियों को आवागमन से छुटकारा दिलाकर आत्मसाधना के साररूप मोक्षप्राप्ति कराना है। इसलिए वे मोक्ष को सर्वप्रकार से उत्तम कहते हैं -
"सब विसि तदार मोक्ष विनात मा .लि
मोक्ष को उत्तम कहकर मोक्ष के कारणरूप भावों को भी ग्रहण करने योग्य बतलाते हैं
"तात जे शिवकारन भाव । तेई गहन जोग मन लाव ॥ साथ ही संसार व संसार के कारणों को छोड़ने योग्य प्रतिपादित करते
यह जगवास महादुखरूप । तातै भ्रमत दुखी चिद्रूप ।।
जिन भावन उपजै संसार । ते सब त्याग जोग निरधार ॥' सनत कबीर के समान * भूधरदास भी अपनी रचनाओं द्वारा संसार से पार होने की बात करते हैं -
प्रभु उपदेश पोत चढ़ि धीर । अब सुख सों जे हैं उन तीर। तुम वानी कूची कर धार। अब भवि जीव लह पयसार ।'
जिसप्रकार सन्त कविता द्वारा स्व और पर का कल्याण चाहते हैं तथा उससे किसी लौकिक ऐश्वर्य या सम्मान आदि की चाह नहीं करते हैं। उसी प्रकार भूधरदास भी मान - बढ़ाई आदि के लिए कविता न करके स्वयं और दूसरे के हित के लिए कविता करते हैं।' .... . - . . 1. पाचपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 7 2. पार्श्वपुराण,कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 7 3. पार्श्वपुराण,कलकत्ता, अधिकार 9 पृष्ठ 77 4. हरिजी यहै विचारिया, साषी कहो कबीर ।
पौ सागर में जीव है,जे कोई पकड़े वीर।। 5. पाश्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 7, पृष्ठ 64 6. जौलो कवि काव्य हेत, आगम के अक्षर को...। पाश्वपुराण, पृष्ठ 2