Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
यद्यपि कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है तथापि बदले में चन्दन उसके मुख को सुवासित ही करता है। उसी प्रकार सज्जन दुर्जन द्वारा कष्ट दिये जाने पर अपने सद्स्वभाव को नहीं छोड़ता -
सजन टरै न टेवसों, जो दुर्जन दुख देय।
चन्दन कटत कुठार मुख, अवशि कुठार करेव ॥' दुर्जन की तुलना श्लेषमा से करता हुआ कवि कहता है -
दुर्जन और श्लेषमा ये समान जगमाहिं ।
ज्यों ज्यों मधुरे दीजिये, त्यों त्यों कोप कराहिं ।' दुर्जन की प्रीति से सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? जिस प्रकार सर्प को दूध पिलाने से अमृत की प्राप्ति नहीं होती है -
दुर्जन जन की प्रीतिसों, कहो कैसे सुख होय।
विषथर पोषि पियूष की, प्रापति सुनी न लोय ॥' जिस प्रकार सर्प के मिलने से सुख नहीं होता है, उसी प्रकार दुर्जन के मिलने से सुख नहीं होता -
खलसों मिले कहा सुख होय विषधर भेटें लाभ न कोय।' दुर्जन की तुलना सर्प से करते हुए कवि भूधरदास का कथन है -
करि गुण अमृतपान, दोष विष विषम समप्पै । बंकचान नहीं तजै, जुगल जिव्हामुख थप्पै।। तकै निरन्तर छिद्र, उदै परदीप न रूच्चै । बिन कारण दुख कर, बैर विष कबहूं न मुच्चै ॥ वर मौन मन्त्र सौ होय वश, संगत कीयै हान है। बहु मिलत बान यातें सही, दुर्जन साँप समान है।
1 से 3 पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 1, पृष्ठ 8 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, पूधरदास, अधिकार 1, पृष्ठ 7 5. जैनशतक भूधरदास छन्द 79