Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास:
दुर्लभ धर्म दशांग पवित्त। सुखदायक सहगामी नित्त। दुर्गति परत यही कर गहै । देय सुरग शिवश्चानक यहै ।।
बोधिदुर्लभ भावना - धन-सम्पत्ति, राज्य-सुख आदि सब कुछ सुलभ है; परन्तु संसार में एक यथार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है। संसार के सभी सुख यहाँ तक कि नौ ग्रेवेयक तक के सुख जीव को सुलभ हैं। एक मात्र संसार के दुःख एवं दारिद्रय को मिटाने वाला ज्ञानरूपी रत्न दुर्लभ है
घन कन कंचन राज सुख, सबै सुलभ करि जान । दुर्लभ है संसार में, एक अथारथ ज्ञान ।' सुलभ जीव को सब सुख सदा । नौ ग्रीवक तांई संपदा ।
बोधरतन दुर्लभ संसार। भवदरिद्र दुख मेटनहार ।' ये बारह भावनाएँ माने से जीव को संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न होता है तथा इनकी असारता का ज्ञान होता है।' दसधर्म -
उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य
इन दसधर्मों का पालन मुनिराज हमेशा करते हैं।
उत्तम क्षमा - बिना दोष के दुर्जन दुःख देते हैं, समर्थ होकर भी जो सब दुःखों को सह लेता है। जहाँ क्रोध कषाय उत्पन्न नहीं होती है, वहाँ उत्तम क्षमा धर्म कहलाता है।
उत्तम मार्दव - आठ प्रकार के अनुपम महामद को उत्पन्न करने वाली स्थिति होने पर भी जो अभिमानरहित मृदुरूप वर्तते हैं । जहाँ मान कषाय उत्पन्न नहीं होती है, वहाँ उत्तम मार्दव धर्म होता है।" 1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूघरदास, अधिकार 7, पृष्ठ 6A 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, धरदास,अधिकार 4, पृष्ठ 30 3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 7, पृष्ठ 64 4. ये दश दोय भावना भाय,दिढ वैरागी भये जिनराय ।
देह भोग संसार सरुप, सब असार जानौ बगभूप ।। वही, अधिकार ?, पृष्ठ 64 5. पार्श्वपुराण, कलकचा, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35 6. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 35