Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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तप के बल से पूर्व कर्मों का खिर जाना और ज्ञान के बल से नये कर्मों का न आना, यही सुख देने वाली निर्जरा है। यह निर्जरा संसार के कारणों से पार करने वाली, निश्चय करना चाहिए
नाहिं ॥
निरधार ॥
लोक भावना - चौदह राजू ऊंचे पुरुष के आकार वाले लोक में जीव बिना ज्ञान के अनादिकाल से भटक रहा है
तप बल पूर्व कर्म
जाहि
यही निर्जरा सुखदातार । भवकारन तारन
चौदह राजू उतंग नथ, लोक पुरुष संठान ।
तामैं जीव अनादिसौं भरमत है बिन ज्ञान ।
कमर पर हाथ रखे पुरुष के आकार रूप स्वयं सिद्ध तीन लोक में जीव अनादि से भ्रमण कर रहा है और यहाँ उसे सम्यग्दर्शन के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं होता है
कदि कर घरैं पुरुष संठान ।
स्वयं सिद्ध त्रिभुवन थित जान । भ्रमत अनादि आतमा जहाँ समकित बिन शिव होय न तहाँ ।। " धर्म भावना कल्पवृक्ष याचना करने पर कुछ देता है, चिन्तामणि चिन्तन करने पर कुछ देता है; जबकि धर्म बिना माँगे, बिना चिन्तन किये सब कुछ देता है
-
जा
सुरतरु देहि सुख, चिन्तत चिन्ता रैन । बिन जारौं बिन चितवें, धर्म सकल सुख दैन ॥
उत्तम क्षमादि दश अंग रूप धर्म दुर्लभ है, वह जीव को सुख देने वाला तथा सहगामी है। वह दुर्गति में गिरते हुए जीव का हाथ पकड़ लेता है और स्वर्ग और मोक्ष स्थान प्रदान करता है ।
1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 7, पृष्ठ 64 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 30 3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 7, पृष्ठ 64 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 4, पृष्ठ 30