Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
पुण्य-पाप के फल सुख-दुःख को जीव अकेला ही भोगता है। उसका तीन लोक और तीन काल में कोई साथी नहीं है
तीन काल इस त्रिभुवन माहिं। जीव संघाती कोई नाहि ।
एकाकी सुख-दुख सब सहै, पाप पुन्य करनी फल लहै ।'
अन्यत्व भावना - जहाँ शरीर ही जीव का नहीं है, वहाँ अन्य पदार्थ उसके कैसे हो सकते हैं ? धन-सम्पत्ति, स्त्री पुरुष आदि परिजन प्रगट पर हैं । संसार में होने वाले संयोगी भाव भी जीव के स्वभाव से भिन्न हैं
जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ '
जितने जग संयोगी भाव । वे सब जियसों भिन्न सुभाव । नितसंगी तन ही पर सोय । पुत्र सुजन पर क्यों नहि होय ॥
अशुचि भावना यह शरीर हाड-मांस आदि का घर है। इस पर चमड़े की चादर सुशोभित होती है, वैसे इसके समान अन्दर में कोई दूसरा घृणा का घर नहीं हैं
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दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह ।
भीतर या सम जगत में, और नहीं घिनगेह ॥1
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यह शरीर अशुचि हड्डी - मांस का पिंजड़ा है तथा घृणा का घर चमड़े से आवेष्टित है | चेतन चिड़ा (पक्षी) उसमें रहता है, वह ज्ञान के बिना उसमें ग्लानि नहीं करता है
अशुचि अस्थि पिंजर तन येह चाम खसन बेढ़ो घिनगेह | चेतन चिरा तहाँ जित रहै, सो बिन ज्ञान गिलानि न गहै ॥
1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार, 7 पृष्ठ 64 2. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार, 4 पृष्ठ 30 3. पार्श्वपुराण, कलकता, भूषरदास, अधिकार, 7 पृष्ठ 64 4. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार, 4 पृष्ठ 30 5. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार, 7 पृष्ठ 64