Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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अशुद्ध निश्चयनय से जीव संसारी है और द्रव्यदृष्टि (शुद्ध निश्चयनय) से सिद्ध है। कर्मसंयोग से जीव संसारी है और कर्म के नाश होने पर सिद्ध होता है । सिद्ध आठ गुणों से युक्त, सम्पूर्ण कर्ममल से रहित, उत्पत्ति-विनाश स्थितिसहित तथा चरमदेह से किंचिन्यून, पुरुषाकार, लोक के अग्रभाग में विराजमान होते हैं।
अमूर्तिक - पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, और आठ स्पर्श-इन बीस गुणों से रहित जीव अमूर्तिक है। यही जीव अनादि-कालीन कर्मबन्ध के संयोग के कारण कथंचित् मूर्तिक भी कहा जाता है। निश्चयनय से जीव अमूर्तिक है और व्यवहार नय से मूर्तिक है।
___ उर्ध्वगमन - प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध से रहित आत्मा लेपरहित जलतुंबी की तरह उर्ध्वगमन करता है, जब कि कर्मबन्ध सहित जीव तिर्यक्गमन भी करता है।'
ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा को जीव तत्त्व कहते हैं। आत्मा में झान, दर्शन, सुख, वीर्य, श्रद्धा, चारित्र आदि गुण होते हैं । सब गुणों में निरन्तर परिवर्तन हुआ करता है, जिसे पर्याय या अवस्था कहते हैं। अवस्था की दृष्टि से आत्मा के तीन भेद किये जाते हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।
जिसे जीवादि सात तत्त्वों या नौ पदार्थों का सही ज्ञान व श्रद्धान नहीं है, आत्मानुभूति प्राप्त नहीं हुई है तथा जो शरीरादि अजीव पदार्थों एवं रागादि रूप आस्रावादि में अपनापन मानता है व उनका कर्ता भोक्ता बनता है, वह आत्मा ही बहिरात्मा है।
जो आत्मा भेदविज्ञान के बल से आत्मा को देहादि और रागादि से भिन्न ज्ञान दर्शन स्वाभावी जानता, मानता व अनुभव करता है वह ज्ञानी सम्यग्यदृष्टि आत्मा ही अन्तरात्मा है।
यही अन्तरात्मा गृहस्थावस्था त्यागकर शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार कर निजस्वभाव साधन द्वारा आत्मतल्लीनता की परम अवस्था में पूर्ण वीतरागी 1. पार्चपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9. पृष्ठ 81 2. पार्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 82 3. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, अधिकार 9, पृष्ठ 82