Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
लेश्या त्याग जहुँ होय, सो गृहस्थ को धर्म,
देशचारित वही । ही पालै सही ॥
चारित्र ही साक्षात् धर्म है। वह मोह (दर्शन मोह अर्थात् मिथ्यात्व) और क्षोभ (चारित्रनोह अर्थात् राम-द्वेष से साम्य आत्मा का परिणाम है।' चारित्र के पूर्व " सम्यक् " पद का प्रयोग अज्ञानपूर्वक आचरण की निवृत्ति, के लिए है ।' अज्ञानपूर्वक धारण किया हुआ चारित्र सम्यग्वारित्र नहीं कहा जा सकता है; इसीलिए सम्यग्ज्ञान के बाद ही सम्यग्चारित्र की आराधना करने को कहा गया है।' सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र नियमपूर्वक नहीं होते हैं। इसलिए सम्पूर्ण प्रयत्न से सम्यग्दर्शन के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए ।"
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सकलचारित्र या मुनिधर्म सकलचारित्रधारी मुनिराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इसप्रकार तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करते हैं ।' बारह भावनाऐं भाते हैं, बाबीस परीषहों को सहते हैं, बारह प्रकार के तप तपते हैं और दशधमों का आराधन करते हैं। अट्ठाबीस मूलगुणों का अखंडित पालन करते हैं ।'
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1. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास अधिकार 9 पृष्ठ 85
2. चारित्रं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिदिट्ठो ।
मोहक्खोह विहीणी परिणामो अप्पणो हु समो ॥ प्रवचनसार, कुन्दकुन्दाचार्य गाथा 7
3. " अज्ञानपूर्वकाचारणनिर्वृत्यर्थ सम्यग्विशेषम् । "
सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, अध्याय 1 सूत्र 1 की टीका !
4. न हि सम्यग्व्यपदेशं चारित्रमानपूर्वकं लभते । ज्ञानान्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमृतचन्द्राचार्य, श्लोक 7
5. सम्मत्तं विणा सण्णाणं सच्चारित्रं ण होई नियमेण । रयणसार, कुन्दकुन्द, गाथा 47
6. तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयलेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च । पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अमृतचन्द्राचार्य, श्लोक 21
7. पंच महाव्रत दुद्धर घरै, सम्यक पांच समिति आदर। तीन गुप्ति पालै यह कर्म, तेरह विधि चारित मुनिधर्म ॥ 8. पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 9, पृष्ठ 86 9. बारह विधि दुद्धर तप करें, दशलाछनी धर्म अनुसारै । पढ़े अंग पूरब श्रुतिसार, एकाकी विचरै अनगार ॥ पार्श्वपुराण, कलकत्ता, भूधरदास, अधिकार 3 पृष्ठ 19