Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
253
संसारी जीव की प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी है कि वह शरीर की सेवा करता है, उसे नहाता, धुलाता, सजाता, श्रृंगारता। उसे जरा भी कष्ट न हो - इसका पूरा-पूरा ख्याल रखता परन्तु उसने कभी यह नहीं सोचा कि यह देह कितनी घिनौनी है ? "मल-मूत्र की थैली है" ? कवि के द्वारा प्रस्तुत इस शरीर का यथार्थरूप कितनी भयानकता के साथ वीभत्स रस की सृष्टि कर रहा है--
मात-पिता-रज-वीर असौं, उपजी सब सात कुथात भरी है। माखिन के पर माफिक बाहर, चाम के बैठन बेढ़ धरी है ॥ नाहिं तो आय लगैं अब ही वक, वायस जीव बचै न घरी है। देह दशा यहै दीखत भ्रात, घिनात नहीं किन बुद्धि हरी है।'
शरीर सेवा के साथ ही अथवा शरीर सेवा के हितार्थ ही यह संसारी जीव धन को भी खूब चाहता है । अच्छे बुरे कैसे भी धन की प्राप्ति हो जाय । धनागम की सुखद आशा में, मधुर कल्पना में यह तरह-तरह के स्वप्न देखता है। सोचता है, धन हो जाय तो विदेश की यात्रा कर आऊँ मोटरगाड़ी खरीद लूँ, बंगला बनवा लूँ, पुत्रादि का विवाह कर दूँ, पत्नी को गहना बनवा दूँ, कोई ऐसा कार्य करूं जिससे यश सृष्टि के अन्त तक रहे । मानव की इसी उधेड़-बुन का वर्णन कवि बड़ी सजीवता से करता है
चाहत है थन होय किसी विध, सौ सब काज सरे जियरा जी। गेह चिनाय करूं गहना कछु ब्याहि सुता सुत बॉटिये भाजी॥ चिन्तन यौं दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी।
खेलत खेल खिलारि गर्यै, रहि आई रुपी शतरंज की बाजी ॥'
संसारी प्राणी धन प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकार के विचार करता है तथा धन होने पर अनेक मंसूबे बाँधता है। परन्तु धन की प्राप्त भाग्य के, पूर्वपुण्योदय के अनुसार ही होती है
1. जैनशतक छन्द 20 2. जैनशतक 32