Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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1. सख्य भाव - स्वयं का मित्र बनकर स्वयं को समझाना सख्य भाव है । आत्मा में ही परमात्मा बनने की शक्ति है परन्तु वह उसे भूलकर पर पदार्थोंविषय-कषायों ( पाप भावों ) का साथ करता है। इसलिए भूधरदास एक मित्र के समान अपने आत्मा को अनेक प्रकार से समझते हैं। वे जिन पदों के द्वारा अपने आत्मा को समझते हैं, वे पद हैं(क) अज्ञानी पाप धतूरा न बोय।
फल चाखन की बार भरै दग, मर है पूरख रोय।।' (ख) मन हंस ! हमारी लै शिक्षा हितकारी।
श्री भगवान परन पिंजरे पास वि विषय की यारी ॥ मेरे मन सूवा, जिनपद पीजरे वसि, यार लाव न बार रे ।
संसार में विषबच्छ सेवत, गयो काल अपार रे॥' (घ) वीरा ! थारी वान बुरी परी रे, वरज्यो मानत नाहिं।
विषय विनोद महा बुरे रे, दुखदाता सरवंग। तू हटसौं ऐसे स्मै रे, दीबे पड़त पतंग ।। वीरा ।।' अन्तर उज्जवल करना रे भाई।
कपट कृपान तजै नहिं तबलौं, करनी काज न सरना रे ॥ (च) चित ! चेतन की यह विरियाँ रे।
उत्तम जनम सुनत तस्नापी, सुजत बेल फल फरियां रे॥
इन पदों में कवि ने अपने आपको क्रमश: अज्ञानी, हंस, सुआ ( तोता ) वीरा, भाई व चेतन कहा है। साथ ही सांसरिक मोह-माया, विषय कषाय आदि के दुष्परिणामों की चर्चा करते हुए इन विकारों से पृथक् रहने के लिए उसे एक मित्र की तरह संभाला है। जैनधर्मानुसार आत्मा और परमात्मा में स्वभाव से कोई अन्तर नहीं है संसारी आत्मा ही कर्ममल से रहित होने पर सिद्ध बन जाती
1. भूधरविलास पद 4 3. वही पद 5 5. वहीं पद 31
2. वही पद 33 4. वहीं पद 32 6. वही पद 27