Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि पूधरदास :
अर्थ नहीं समझ पाता है। भूधरदास की शैली की यह विशेषता है, उन्होंने अधिकांश आर्षवाक्य शंकाकार के मुख में रखे हैं और समाधानका के धार अनेक आगम प्रमाण दिलाकर उनका समाधान कराया है।
भूधरदास ने जिस समय 'चर्चा समाधान' गद्य ग्रन्थ लिखा, उस समय ब्रजभाषा का गद्य अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था 1 यद्यपि छुटपुट रूप में भूधरदास से कुछ समय पूर्व के पिंगल गद्य के रूप मिल जाते हैं, परन्तु उससे यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय गद्य विचारों के वहन का मुख्य साधन बन चुका था। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने गद्य की समस्त विधाओं से युक्त प्राचीन से प्राचीन गद्य सन् 1800 ई. के बाद का ही होना उल्लेखित किया है; जब कि भूधरदास भी 18वीं शती के ही गद्यकार हैं । तत्कालीन गद्य की तुलना में भूघरदास का गद्य कहीं अधिक परमार्जित, सशक्त, प्रवाहपूर्ण एवं सुव्यवस्थित है।'
चर्चा समाधान में प्रयुक्त भाषा भी तत्कालीन प्रचलित ब्रजभाषा है; परन्तु उसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है; क्योंकि 'चर्चासमाधान' संस्कृत, प्राकृत भाषा में लिखित प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों पर आधारित शास्त्रीय ग्रन्थ है। अत: उसमें संस्कृत, प्राकृत और उनकी परम्परा में विकसित शब्द अधिक हैं तथा देशी शब्द अपेक्षाकृत कम हैं। तत्सम शब्दों की अधिकता का एक कारण मूलग्रन्थों का संस्कृत, प्राकृत भाषा में होना भी है। लेखक गद्य में अपनी अभिव्यक्ति को सुगम बनाने के लिए तत्सम शब्दों का प्रयोग करता है तथा पद्य में तद्भव शब्दों का । पद्य में तद्भव शब्दों की अधिकता का कारण ब्रजभाषा में तद्भव
और देशी शब्दों के प्रयोग के विधान का अनिवार्य होना है। इसीलिए भूधरदास पद्य में परम्परा से बँधे थे, जबकि ब्रजभाषा में गद्य का अभाव था, इसलिए गद्य में उन्हें तत्सम शब्दों के प्रयोग में किसी प्रकार की रूकावट नहीं थी।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि उनकी गद्य शैली प्रश्नोत्तर शैली है, जिसमें दृष्टान्तों एवं उद्धरणों का प्रयोग किया गया है। उनकी गद्य शैली में उनके व्यक्तित्व की झलक है, जिससे वह कहीं शास्त्रों में अति आस्थाशील व विनयवान एवं आगमों के अनुसरणकर्ता, तो कहीं कहीं उपदेशक के रूप में नजर आते हैं। उनकी शैली में शास्त्रीय चिन्तन, आगमों के प्रमाण एवं लोक व्यवहार के ज्ञान का सुन्दर समन्वय है । 1. हिन्दी साहित्य - डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 364-365