Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास :
भयै दिलगीर कछू पीर न विनसि जाय,
ताही हैं सयाने तू तमासगीर रह रे॥ कवि का बात कहने का तरीका बड़ा ही अनोखा है। वह एक सवैया छंद में जिनराज या साधु की तपस्या की बड़ी सुन्दर और विलक्षण कल्पना करता है। वे नीचे हाथ लटका क्यों खड़े हैं ? मानों अब उन्हें संसार में कुछ करना शेष नहीं रहा है । स्थिर ( अडिग ) क्यों खड़े हैं ? कवि का कहना है कि अब उन्हें कहीं जाना नहीं रहा, वे चार गति, चौरासी लाख योनिरूप संसार भ्रमण की यात्रा समाप्त कर चुके हैं, इसलिए अचल होकर एक स्थान पर खड़े रह गये हैं। वे नासाग्र कृधि को किये हैं ? अति संसार के. लुराव दार्थों की ओर क्यों नहीं देखते ? कवि की कल्पना है कि वे सब पदार्थों को देख चुके हैं, अनुभव कर चुके हैं। कानन में तपस्या करने क्यों नहीं जाते हैं ? वे कानों से अब क्या सुनें अर्थात् उन्हें कुछ सुनना शेष नहीं रहा; इसलिए वे कानन में योग धारण कर ध्यान में लीन खड़े हैं। वह सवैया निम्नलिखित है
करनौ कछु न करन ते कारज, तातै पानि प्रलम्ब करे हैं। रह्यौ न कछु पाँयन तैं पैवौ, ताही ते पद नाहीं टरे है। निरख चुके नैनन सब यादें, नैन नासिका-अनी धरे है। कानन कहा सुनै यौं कानन, जोगलीन जिनराज खरे हैं।'
इसीप्रकार कवि आदिनाथ की स्तुति करते हुए मार्मिक उत्प्रेक्षाएं करता है कि देवताओं के समूह स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर पुन:-पुन: अपने सिर घिस घिस कर इस तरह प्रणाम करते हैं, मानों वे अपने ललाट पर बनी कुकर्मों की रेखा को दूर करना चाहते हैं। आदिनाथ ने अपनी दोनों भुजाओं को इसलिए नीचे लटका रखा है, मानों वे संसाररूपी कीचड़ में फंसे दुःखी प्राणियों को बाहर निकालना चाहते हैं।
1. जैनशतक छन्द 71 2. जैनशतक छन्द 1
2. जैनशतक छन्द 3 4 जैनशतक छन्द 2