Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
261 कवि ने शील की प्रशंसा' और कुशील की निंदा करते हुए श्रृंगार रस की कविता करने वाले कवियों को आड़े हाथों लिया है, उनकी जमकर आलोचना की है
राग उदै जग अंध भयौ, सहजै सब लोगन लाब गवाई। सीख बिना नर सीख रहे विसनादिक सेवक की सघुराई ।। ता पर और र. रसकाव्य, कहा कहिये तिनको निठुराई । अध असूझान की अंखियन में, झोंकत हैं रज रामदुहाई॥ कंचन कुम्भन की उपमा, कह देत उरोजन को कवि बारे ऊपर श्याम विलोकत के, मनिनीलम की बकनी कि छारे ॥ यौं मत वैन कहैं न कुपंडित, ये जग आमिषपिण्ड उघारे। साधन झार दई मुंह छार, भये इहि हेतु कियौं कुच कारे ॥
साथ ही कवि विधाता से इन कवियों को दण्ड देने की बात बड़ी चतुराई से कह देता है। प्रत्येक व्यक्ति पर दुःख आता है, दुःख के समय वह अधीर, चिन्तित और भयभीत हो जाता है; परन्तु घबराने, चिन्ता करने और डरने से द:ख दूर नहीं होता है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति ने जो पापबन्ध पर्व में किया था उसका फल उसी को उदय काल आने पर अकेले ही भोगना पड़ता है। दूसरा व्यक्ति उसे बाँट नहीं सकता है । अत: दुःख के समय ज्ञाता बनने का उपदेश कवि द्वारा दिया गया है
आयौ है अचानक भयानक असाता कर्म, ताके दूर करिवे को बलि कौन अह रे। जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप, तेई अब आये निज उदैकाल लह रे॥ एरे मेरे वीर ! काहे होत है अधीर यामैं, कोउ को न सीर तू अकेलो आप सह रे।
1. जेनशतक छन्द 59 3. जैनशतक छन्द 64
2. जैनशवक छन्द 60 4. जैनशतक छन्द 65
5. जैनशतक छन्द 66