Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास :
भूधरदास का मन वृद्धावस्था के वर्णन में खूब रमा है । वृद्धावस्था को इन्होंने बड़ी ही पैनी और सूक्ष्म दृष्टि से देखा है। इसलिए इसका इन्होंने बड़ा ही विशद और उत्कृष्ट वर्णन किया है। बुढ़ापे का इतना मार्मिक वर्णन शायद ही हिन्दी के किसी अन्य कवि ने किया हो । शरीर के दिन-प्रतिदिन क्षीण एवं शिथिल होने पर इच्छाएँ । हरणः, बढ़ती ही जाती है-...
दृष्टि घटिं पलटी तन की छबि, बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयो परियक लई है। कॉपत हाथ बहैं मुख लार, महामति संगति छॉरि गई है। अंग उपंग पुराने परे, तिशना उर और नवीन भई है।'
रूप को न खोज रह्यौ तरु ज्यों तुषार दहौं, भयौ पतझार कियौं रही डार सूनी-सी। कूबरी भई है कटि दूबरी भई है देह ऊबरी इतेक आयु सेर माहिं पूनी-सी ।। जोबन में विदा लीनी जरा नैं जुहार कीनी, होनी भई सुधि बुधि सबै बात ऊनी सी। तेज घट्यो ताव घट्यौ जीतव को चाव घट्यो,
और सब घट्यो, एक तिस्ना दिन दूनी सी॥ वैदिक संस्कृति में सौ वर्ष तक जीवन जीने की अभिलाषा व्यक्त की गई है। कवि इसी को आधार मानकर सौ वर्ष की आयु का लेखा जोखा प्रस्तुत करते हुए कहता है
सौ वरष आयु ताका लेखा करि देखा सबै, आधी तो अकारथ सोवत विहाय रे। आधी में अनेक रोग बाल-वृद्ध-दशा-भोग,
और हूँ संयोग केते ऐसे बीत जाय रे॥ 1. जैनशतक छन्द 38 2. वहीं छन्द 39