Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि पूघरदास : शुद्धता पर जोर देकर, आडम्बरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके उन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्ल किया।" !
सन्तों ने कविग के लिाा कविता नहीं की। उनकी दृष्टि में कविता किसी उद्देश्य का साधनमात्र है। वे सत्य के प्रचारक थे और कविता को उन्होंने सत्य के प्रचार का एक प्रभावपूर्ण साधन मान रखा था। वे उस अलभ्य का अनुभव करते हैं, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कबीर ने कहा है -
अविगत अकल अनुपम देख्या कहता कह्या न जाई।
सैन करे मन ही मन रहे सैं , गूंगे जानि मिठाई॥' सन्त दादू भी कहते है -
कैसे पारिख पचि मुए कीमत कही न जाई।
दादू सब हैरान है गूंगे का गुड़ खाई ।' सन्त मानव जीवन को कामक्रोधादि मानसिक रोगों से मुक्त कर उसे शुद्ध सक्षम बनाने में तथा विश्व कल्याण के कार्यों में निरत रहते थे। एक विशेष प्रकार का जीवनदर्शन संतकाव्य में अभिव्यक्त हुआ है, जिसमें संसार की निस्सारता एवं जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन करते हुए कामक्रोधादि से परे रहकर सर्वशक्तिमान परमात्मा निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार हेतु नित्य निरत रहने की प्रेरणा दी गई है।
निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार की विचित्र, विशिष्ट दिव्यानुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने में विद्वानों की भाषा की भी परीक्षा हो जाती है। फिर अशिक्षित नातिशिक्षित संत कवियों की भाषा उस अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने में कहाँ सक्षम थी ? अत: सांसारिक प्रतीकों के माध्यम से अलौकिक अनुभूति का चित्रण किया गया है और सहज ही उलटवासी-साहित्य का सृजन हो गया। इस सम्बन्ध में डॉ. बड़थ्वाल लिखते हैं कि निर्गुण समुदाय के सन्त कवि सांकेतिक (प्रतीकात्मक या गुह्या भाषा में कथन किया करते थे। आध्यात्मिक क्षेत्र में पदार्पण करने वाले सभी कवियों को सांकेतिक भाषा की शरण लेनी पड़ती है। 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ 71 2. कबीर गन्यावली पृष्ठ 90 ____ 3. दादू की बानी, सन्त सुधासार पृष्ठ 467 4. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय— डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल पृष्ठ 337