Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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समाज में छुआछूत, ऊँच-नीच, जाति-प्रथा, वर्णव्यवस्था आदि का बोलबाला था। बाह्याडम्बर तथा अंधविश्वास व्यापक थे। मूर्तिपूजा एवं बहुदेववाद प्रचलित था। नरबलि तथा पशुबलि भी दी जाती थी। समाज में दो वर्ग थे - उच्च वर्ग और निम्न वर्ग । उच्च वर्ग ऐश-आरामयुक्त एवं विलासितामय जीवन व्यतीत करता था; जबकि निम्न वर्ग को रोटी, कपड़ा, मकान भी नसीब नहीं होता शा। वह अभिशप्त होकर अनसन स्टार जीवन बिताता था। इन पाँच सौ वर्षों की अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों से जनजीवन शोषण, उत्पीड़न एवं अत्याचार की करुण गाथा बन गया था।'
उपर्युक्त सभी परिस्थितियों के सन्दर्भ में कबीर आदि सन्तों को प्राचीन धर्मग्रन्थों, वेद-पुराणों की निन्दा कर सहजज्ञान और ब्रह्म की अनुभूति पर बल देना पड़ा। उन्होंने विलासिता के विरुद्ध इन्द्रियों को जीतने की प्रेरणा दी। बाह्याडम्बरों के विरुद्ध कर्म और वचन में सामंजस्य तथा मन की पवित्रता की
ओर ध्यान दिलाया । इस लोक की भौतिक सुख-समृद्धि, पद-प्रतिष्ठा आदि के सामने जगत, जीवन, ऐश्वर्य आदि की क्षणभंगुरता की ओर ध्यान दिलाते हुए मुक्ति-प्राप्ति, सहजज्ञान या ब्रह्मानुभूति का सन्देश दिया।
सन्तों ने मानवजीवन को कष्ट देने वाले सभी नियमों और मान्यताओं का जोरदार खण्डन किया । एक ओर जहाँ उन्होंने विघटनकारी मान्यताओं को छोड़ने का अनुरोध किया; दूसरी ओर वहीं सारवान् बातों को अपनाने का आग्रह भी किया। तभी तो कबीर ने कहा था -
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय ।। मुस्लिम आक्रमणों एवं उनकी कट्टरताओं के कारण सन्तों ने प्रतिमोपासना (मूर्तिपूजा) का विरोध किया । तिलक छापा, माला-जप, तीर्थ-स्नान, व्रत आदि धार्मिक बाह्याडम्बरों का विरोध किया। धर्म का आन्तरिक स्वरूप चित्तनिरोध द्वारा हृदयता की पवित्रता या आत्मशुद्धि प्राप्त करना बतलाया। सांसारिक
1. हिन्दी साहित्य- डॉ. त्रिलोकीनारायण दीचिव पृष्ठ 13