Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
227 "चंपक पारिजात मंदार । फूलन फैल रही हकार ।। चेत विरछतै बढयो सुहाग। ऐसे स्वर्ग रवाने बाग ।। विपुल वापिका राजै खरी। निर्मल नीर सुधामय भरी॥ कंचन कमल छई छविधान । मानिक खंड खचित सोपान ॥"
नरक के वर्णन में प्रकृति का पुट निम्नलिखित पंक्तियों मे दृष्टिगोचर होता है -
"ठाम ठाम असुहावने, सेमल तरूवर भूर। पैने दुख देने विकट, कंटक कलित करूर ॥
और जहाँ असिपत्र बन, भीम सत्वर खेत।
जिनके दल तरवार से, लगत घाव कर देत ॥ इस प्रकार कवि ने प्रकृति वर्णन में नगर, वन, नदी, सरोवर, पर्वत, स्वर्ग, नरक एवं ऋतुओं का भावनाही एवं मनमोहक वर्णन किया है, परन्तु यह सब वर्णन प्रधानतः आदि से अन्त तक इतिवृत्तात्मक या वर्णनात्मक ही रहा है। यद्यपि उसमें प्रकृति की सूक्ष्मता, व्यापकता, कल्पना प्रधानता, भावकुता आदि दिखाई नहीं देती है। फिर भी कवि द्वारा किया गया प्रकृति चित्रण नि:सन्देह महाकाव्योचित प्रकृति वर्णन के अनुरूप बन पड़ा है।
__ (घ) पार्श्वपुराण में रस निरूपण महाकाव्य के लक्षणों में एक लक्षण श्रृंगार, वीर एवं शान्त रस में से किसी एक रस का प्रमुख होना तथा शेष रसों का गौण होना बतलाया गया है। प्रमुख रहने वाले रस को काव्यशास्त्रीय भाषा में “अंगीरस" कहते है। "पार्श्वपुराण" के "अंगीरस” का निर्णय करने से पूर्व यह उचित होगा कि पहले अंगीरस के लक्षणों या कसौटी पर विचार कर लिया जाय।
प्राचीन काव्य शास्त्र के अनुसार अंगीरस का निर्णय निम्नलिखित कसौटियों पर हो सकता है -3
1. पार्श्वपुराण- कलकत्ता, अधिकार 4 पृष्ठ 37 2. पार्श्वपुराण- कलकत्ता, अधिकार 3, पृष्ठ 24 3 हिन्दी काव्य के आलोक स्तम्भ, “साकेत का अंगीरस-डॉ. शान्ति स्वरूप गुप्त पृष्ठ 131