Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
एक समालोचनात्मक अध्ययन
1
है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवनधारा के प्रवाह से भिन्न नहीं ।" सन्तों की विचारधारा का पूर्वकालीन पृष्ठभूमियों या परिस्थितियों के सन्दर्भ में विवेचन करते हुए डॉ. राजदेवसिंह का निम्नलिखित कथन ध्यातव्य हैं- " स्पष्ट है कि वैदिक काल से भारतीय जातिप्रथा के अतीव रूढ़ हो जाने तक अनेक अवैदिक परम्परा वाली जातियाँ इस देश में वर्तमान रही है। जीवन और जगत के सम्बन्ध में उनकी अपनी तत्त्वदृष्टि थी; धर्म, आचार एवं साधना की अपनी पद्धतियाँ
तथा आर्थिक सुविधा एवं सामाजिक सम्मानप्राप्त अभिजात वर्गों की अपेक्षा जीवन-जगत की सुखमयता के प्रति ये सदैव अनास्थाशील रहने को विवश रहीं हैं। वैदिक आचार एवं कर्मकाण्ड के प्रति उपेक्षा, अवहेलना या कटुतर आक्रमण की वृत्ति इनकी विशेषता है। कर्म सिद्धान्त में उनकी आस्था है। संसार की क्षणभंगुरता और मायामयता में इनका अटूट विश्वास है, अहिंसा के प्रति ये अतीव आस्थाशील हैं। निराकार भाव की उपासना इनमें प्रचलित रही है और मूल वैदिकापरा में पढ़ने वाले दिन परम्परा द्वारा स्वीकृत या वैदिक परम्परा को स्वीकृत करने वाले सुविधा सम्पन्न वर्गों द्वारा ये सदैव हीन माने गये हैं। विज्ञान- युग के प्रारम्भ के पूर्व तक इन लोगों की अपनी अटूट विचार परम्परा रही है (जो टूट जाने के बाद भी अभी वर्तमान है) और जीवन-जगत के प्रति वे इसी खास परम्परा के प्रकाश में क्रिया प्रतिक्रिया करते रहे हैं। सन्त उसी विचार परम्परा से सम्बद्ध हैं और जीवन-जगत को उन्होंने उसी तरीके से देखा-परखा और अपनाया है।" 2
(ज) सन्त साहित्य की प्रासंगिकता
तों की परम्पराएँ अतीव उच्च महान एवं भव्य है । इनके साहित्य में आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक कल्याण की भावना सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इन्होंने समाज की सेवा पूर्णतः निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ भाव से को; तभी कबीर कहते हैं -
कबिरा खड़ा बाजार में, चाहत सबकी खैर। न काहू से दोस्तों, न काहू से बैर ।।
1. हिन्दी साहित्य - डॉ. श्यामसुन्दरदास पृष्ठ 155
2. सन्तों की सहज साधना -- डॉ. राजदेवसिंह पृष्ठ 66-67
87