Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
107 तत्कालीन भक्त कवियों ने भी श्रीकृष्ण और राधा के पवित्र भक्ति मार्ग का आश्रय लेकर उनसी ओट में अपनी जान नीलकामा कल्पतरों को उद्दीप्त किया। भक्त कवि “नेवाज” व्रजवनिताओं को नीति की शिक्षा देते हुए कहते हैं -
"वावरी जो पै कलंक लग्यो तो, निसंक कै काहे न अंक लगावति ।"
कलंक धोने का इससे अच्छा उपाय भी उन्हें नहीं सूझा । यही नहीं, रसखान जैसा भक्त कवि भी इस प्रवाह में बह गया और कहने लगा -
“मौ पछितायौ यहै जु सखी, कि कलंक लग्यो पे अंक न लागी"
कतिपय इने गिने कवियों को छोड़कर प्राय: सभी कवियों ने अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न रखने के निम्नस्तरीय श्रृंगारिक साहित्य का सृजन किया। इसके सम्बन्ध में कविवर सुमित्रानन्दन पंत के निम्नलिखित विचार द्रष्टव्य
“इन साहित्य के मालियों में से जिनकी विलास वाटिका में भी आप प्रवेश करें, सबकी बावड़ी में कुत्सित प्रेम का फुहारा शत शत रसधारों में फूटता है। कुंजों में उद्दाम यौवन की दुर्गन्ध आ रही है । इस तीन फुट के नखशिख के संसार से बाहर ये कविपुंगव नहीं जा सके। 1
तत्कालीन श्रृंगारिक साहित्य के उपयुक्त उद्धरणों के सन्दर्भ में भूधरदास का निम्नलिखित आलोचनात्मक कथन अति मननीय है -
राग उदै जग अंध भयौ, सहजै सब लोगन लाज गवाई। सीख बिना नर सीख रहे विसनादिक सेवन की सुघराई॥ ता पर और रचे रस काव्य, कहा कहिए तिनकी निठुराई।
अंध असूझन की अँखियान में, झोंकत है रज राम दुहाई॥ यद्यपि नेमिनाथ और राजुल के प्रसंग को लेकर श्रृंगारपरक रचनाएँ जैन साहित्य में भी मिलती है, परन्तु उनमें कहीं भी मर्यादा का उल्लंघन देखने को नहीं मिलता है । प्राय: सभी जैन कवि श्रृंगारिक रचनाओं के विरोधी रहे तथा उन्होंने श्रृंगारमूलक वर्णनों तथा प्रवृत्तियों की कड़ी आलोचना की। उनकी दृष्टि में नारी के नख-शिख आदि का वर्णन करने वाले न तो कवि हैं और न ही उन्हें सरस्वती का वरदान प्राप्त है
1. "पल्लव” की भूमिका सुमित्रानन्दन पंत
2. जैन शतक : भूधरदास पछ 65