Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि पूधरदास : कहा है, परन्तु काव्य का प्राण "हरिजस" है और उसके बिना वह शवतुल्य कहा जा सकता है।
ओढेर काण से तुक अमिल, अर्थहीन अंधो यथा।
कहि सुन्दर हरिजस जीव है, हरिजस बिन मृत कहिं तथा ॥' जिस प्रकार प्राणविहीन शरीर आकर्षण राहत हो जाता है; उसी प्रकार हरिजस के बिना काव्य फीका एवं नीरस प्रतीत होता है। इस प्रकार सुन्दरदास का काव्यादर्श सर्वप्रथम ब्रह्म यशोगान है तदनन्तर काव्य सौन्दर्य, काव्य सरसता आदि । सन्त अनन्तदास काव्य को दुष्कर्मनाश करने में सहायक मानते हैं। उनके अनुसार काव्य वही है, जो दुष्कर्मों को नष्ट करके नये संस्कारों का निर्माण कर सके
यह परचयी सुनै जो कोई। सहजै सब सुख पावै सोई। ।
वक्ता श्रोता पावै मोसा । नासे कर्म हेत के दोषा ।।' सन्त बोधदास भी काव्य-रचना का उद्देश्य सम्पूर्ण कर्मों का नाश मानते हैं -
पढ़हि सुनिहि जो कोई सन्त प्रचई गरन्थ यह।
भला ताहि का होइ कठिन करम कटि जाहि सब ।।" इस प्रकार सभी सन्तों का काव्यादर्श ब्रह्म का गुणगान या हरि का यशोगान, बाह्याचारों की आलोचना, सहज देशभाषा, सरल शैली एवं अलंकारादि रहित साधारण छन्द है । सन्तों ने कवि और काव्य की निन्दा करने पर भी काव्य रचना ब्रह्मस्मरण में सहायक तथा आध्यात्मिक उन्नति में सहायक मानकर की है। काव्य निर्माण उनका लक्ष्य नहीं था, उन्होंने जो दिव्य अनभूति की थी उसे सामान्य जनता तक पहुँचाने के माध्यम की खोज में कविता स्वयं ही सहायक हो गयी । कविता उनकी अनुभूति को अभिव्यक्त करने का साधन मात्र है परन्तु "वही सब कुछ है" इस भाव का समर्थन किसी भी सन्त कवि ने नहीं किया । सन्त कवियों का आन्तरिक रूप “सन्त" है और बाह्य रूप “कवि" । वे अनुभूति के स्तर पर “सन्त" है और अभिव्यक्ति के स्तर पर "कवि" | हिन्दी साहित्य में उनकी विचारधारा, भाव, विश्वास और उनकी अभिव्यक्ति का विशेष दंग-इन दोनों प्रकार से उनके काव्य का मूल्यांकन किया जा सकता है। 1. सुन्दर ग्रंथावली द्वितीय खण्ड पृष्ठ 972 2. परिचयी साहित्य - डॉ. त्रिलोकीनारायण दीक्षित पृष्ठ 53 3. वही पृष्ठ 73