Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
से ही हुआ। लेकिन यह ऐतिहासिक रूप से सच है कि भक्त कंठ सर्वप्रथम दक्षिण के आलवार भक्तों के बीच फूटा । इतिहासकार सतीशचन्द्र लिखते हैं "तुर्कों के भारत आगमन से काफी पहले से ही यहाँ एक भक्ति आन्दोलन चल रहा था, जिसने व्यक्ति और ईश्वर के बीच रहस्यवादी सम्बन्ध को बल देने का प्रयास किया ...---- परन्तु भक्ति आन्दोलन की जड़े सातवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत में ही जमी।...--- शैव नयनार और वैष्णव अलवार जैनियों और बौद्धों के अपरिग्रह को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मुक्ति का मार्ग बताते थे 1 अत: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कथन पूर्णत: सत्य है कि अगर मुसलमान न भी आये होते तब भी हिन्दी साहित्य का बाहर आना वहीं होता जो आज है।
सन्तों की भक्ति के बारे में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि - "इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार करना था; जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेद भाव का कुछ परिहार हो।" - वे आगे लिखते हैं - कबीर ने जिस प्रकार निराकार ईश्वर के लिए भारतीय वेदान्त का पल्ला पकड़ा; उसी प्रकार निराकार ईश्वर की भक्ति के लिए सूफियों का प्रेमतत्त्व लिया और अपना “निर्गुणपन्थ” धूमधाम से निकाला ।' “सन्तों की भक्ति के सम्बन्ध में एक धारा यह भी है कि भक्ति उनकी परम्परागत वस्तु नहीं है, बल्कि वह सीखी हुई है और रामानन्द से सीखी हुई है। लेकिन सन्त साहित्य को सरसरी दृष्टि से देखने पर वह नयी सीखी हुई नहीं लगती, भक्ति उनकी अपनी ही चीज है ।"* रामानन्द निर्गुणभक्ति और योग के प्रति आस्थाशील थे और उत्तरीभारत में पहले से ही स्वरूप ग्रहण करने वाली निर्गुण भक्ति को राम की दिशा में मोड़ने का श्रीगणेश उन्हीं के हाथों में हुआ था। जिसे आगे चलकर कबीर तथा अन्य अनेकशः सन्तों ने बहुश: प्रचारित प्रसारित किया।
1, मध्यकालीन भारत-सतीशचन्द्र (भारत में सांस्कतिक विकास) पृष्ठ 119-201 2. हिन्दी साहित्य का इतिहास- रामचन्द्र शुक्ल पृष्ठ 56 3. वही पृष्ठ 58 4. सन्तों की सहज साधना-डॉ.राजदेवसिंह पृष्ठ 147 5, वही पृष्ठ 164