Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
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है जिसमें कृत्रिमता स्वत: विलीन हो जाती हैं। इसमें दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य को ब्रह्म उपासना का ही अंग समझा जाता है और दुःखविहीन मनः स्थिति बन जाती है। कबीर कहते हैं -
साधों सहज समाधि भली। गुरुप्रताप जा दिन सो जागि दिन दिन अधिक चली। जहाँ तहाँ डोलों सो परिकरमा, जो कछु करौ सो सेवा । जब सांवों तब करौं दण्डवत, पूजी और न देवा ॥ कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावौं पीवौं सो पूजा। गिरह उजाड़ एक समलेखो, भाव मिटावों. दूजा ।। आंख न मूदौ, कान न रूधो, तनिक कष्ट नहि धारौ।
खुलें नैन पहिचानौ, हँसि हँसि सुन्दर रूप निहारौ॥ कायिक और मानसिक क्लेश का सहज समाधि में कोई स्थान नहीं है -
काहे को कलपत फिरै, दुखी होय बेकार ।
सहजै सहजै होइगा, जो रचिया करतार ॥ सहजोबाई की प्रेरणा है -
ऐसा सुमिरन कीजिए, सहज रहे लो लाय ।
खिनु जिभ्या बिन तालुवै, अन्तर सुरति लगाइ॥ सन्तों के मत से सहज साधना एवं सहज समाधि के लिए मन को मार लेना या वश में कर लेना प्रमुख है। विषय ग्रहण का मूल अधिष्ठान मन हैं। यह मन विषयों के स्वाद में पड़कर अनेक कर्म करता है। मत्त मन को वश में करने के लिए इसे शरीर के भीतर घेर कर मारो, जब भी यह आदेशों की उपेक्षा करे, अंकुश दे देकर इसे रोको
मैमंता मन मारि ऐ मनहीं माहे घेरि।
जब ही चालै पीठि दै अंकुस दै दै फेरि ॥ विषयानुरागी अर्थात् चंचल प्रवृत्ति वाला मन जब ध्यान का अभ्यासी हो जाता है तो यह निश्चल और निर्मम होकर ब्रह्मसाधना में सहायक बन जाता है । ब्रह्मसाक्षात्कार या आत्मानुभूति में यदि साधक निरन्तर स्थिर रह सकता है तो वह सहज समाधि में स्थित हो जाता है। इसमें हठयोग साधना में उत्पन्न काया के क्लेश का निषेध कर सहज भाव से समाधि की स्थिति प्राप्ति होने पर