Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
महाकवि भूघरदास :
कबीर हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म तथा उनके इष्टदेव, विधि, विधान आदि को अलग-अलग नहीं मानते हैं। उनके अनुसार हिन्दू और इस्लाम धर्म-दोनों का एक ही उद्देश्य है । मूल रूप में दोनों एक ही है परन्तु कहने सुनने के लिए दो हैं -
गहना एक कनक ते कहिये, तामें भाव न दूजा ।
कहन-सुनन की दुइ करि राखी, इक नमाज इक पूजा ॥ कबीर ने मन-वचन-कर्म में समन्वय करने का उपदेश देते हुए बाहरी आडम्बरों का विरोध किया है। वे कहते हैं -
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर।
कर का मनका डारि दे मन का मनका फेर ।। इसी प्रकार शास्त्र ज्ञान की निस्सारता एवं अनुभवज्ञान या ईश्वरीय प्रेम की महत्ता के बारे में उनका कथन है -
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।। सन्तों की उपर्युक्त प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में बाबू गुलाबराय का यह कथन दर्शनीय है - "मध्यकालीन हिन्दी सन्त कवियों के आचार विचार, उनका अक्खड़पन और खण्डन मण्डन की वृत्ति आदि सभी परम्परागत है । कबीर ने हिन्दू विधि विधानों का जो खण्डन किया अथवा बाह्याचार पर अत्यन्त निर्ममता पूर्वक प्रहार किया है, वह न तो मुसलमानी जोश था और न प्रच्छन्न रूप से इस्लाम प्रचार की भावना की उपज । उन्होंने जो कुछ कहा है, उसकी लम्बी परम्परा थी। पुस्तकीय ज्ञान के प्रति उपेक्षा, जाति-पाति का विरोध, बाह्याचार के प्रति अनास्था, धार्मिक कट्टरता एवं दुराग्रह के प्रति आक्रोश की भावना, समरसी भाव से स्वसंवेदन ज्ञान पर जोर, चित्तशुद्धि पर बल आदि केवल कबीर के मस्तिष्क की उपज नहीं थी, अपितु किसी न किसी रूप में ये सभी बातें कम से कम हजार वर्षों से चली आ रही थीं।" 1
सन्तों की विषय वस्तु के सम्बन्ध में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने एक स्थान पर लिखा है - "निर्गुण मतवादी सन्तों के केवल उग्र विचार ही भारतीय नहीं हैं ; उनकी समस्त रीति-नीति, साधना, वक्तव्य, वस्तु के उपस्थापन की प्रणाली, छन्द और भाषा पुराने भारतीय आचार्यों की देन है।"
1. हिन्दी काव्य विमर्श, गुलाबराय पृष्ठ 32 2. हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पृष्ठ 28