Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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महाकवि भूधरदास : और भाषा की कोमलता मिलती है। सन्तों की विषयवस्तु का सम्बन्ध स्थूल भौतिक जगत से न होकर सूक्ष्म आध्यात्मिक भावों से है। अत: उन्होंने प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात व्यक्त की है। इसके लिए उन्होंने सन्ध्या भाषा या सन्ध भाषा (रहस्यात्मक भाषा) का प्रयोग करना पड़ा है । इसे ही उलटवांसी कहा गया । इस सम्बन्ध में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का कथन है कि -
__ "इन्होंने (सन्तों ने) सिद्धों, मुनियों तथा नाथपंथियों की भांति सर्वजन सुलभ प्रतीकों का सहारा लेने तथा जनभाषा में ही सब कुछ कह डालने की प्रणाली को भी अंगीकार किया। सिद्ध लोग कभी कभी अपनी महत्वपूर्ण बातें एक प्रकार की "संध्या भाषा" की शैली में भी कहा करते थे, जो बहुत कुछ गूढ़ हुआ करती थीं। नाथपंथियों ने उसका प्रयोग “उलटी चरचा" के नाम से किया और वही सन्तों के यहाँ “उलटवासी” या “विपर्यय" नाम से प्रसिद्ध हुई।" 1
छन्द - सन्त साहित्य में अधिकतर साखी (दोहा) छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके अलावा सबद (निर्गुण ब्रह्म का आख्यान करने वाले गेय पद) रमैणी (चौपाई दोहा-दोनों का सम्मिलित रूप) कवित्त, सवैया, छप्पय, अडिल्ल, कुण्डलियाँ, त्रिभंगी, बरवै, हंसपद झूलना आदि छन्द भी प्रयुक्त हए हैं। सन्तों के काव्य को काव्य के रूप की दृष्टि से मुक्तक काव्य तथा गीति काव्य दोनों रूपों में माना है। डॉ. कोमलसिंह सोलंकी का कथन है कि “सन्तों की रचनाओं में प्राय: निम्नलिखित काव्य रूपों का प्रयोग मिलता है -
(1) साखी (2) शब्द (गेय पद) (3) रमैणी (4) बावती (5) चौंतीसा (6) थिती (7) वार (8) चांचर (9 ) बसंत (10 ) हिंडोला (11 ) ककहरा (12) बेलि (13) बिरदुली (14) विप्रमतीसी
(15) आदि मंगल ।" साखी के बारे में कबीर का कथन है -
साखी आंखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहि ।
बिन साखी संसार का, झगरा छूटत नाहिं ।। साखी की रचना दोहा छन्द में की गई है, किन्तु सभी साखियाँ इसी छन्द में नहीं मिलती है। इन साखियों में अन्य छन्द जैसे दोहा, चौपई, श्याम, 1. सन्त साहित्य की रूपरेखा - आचार्य परशुराम चतुर्वेदी पृष्ठ 15 2, नाथपंथ और निर्गुण सन्त काव्य - डॉ. कोमलसिंह सोलंकी पृष्ठ 299 3, वही पृष्ठ 300