Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
नाद वह दिव्य संगीत है, जो साधक को सिद्धि के क्षणों में ब्रह्मसाक्षात्कार से पूर्व अपनी आत्मा में सुनायी देता है । औंधा कुँआ सहस्त्रार चक्र में ध्यानावस्थिति है। दीपक अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश है, जो सद्गुरु से प्राप्त होता है और माया मोहांधकार को मिटा देता है । पिण्ड का अर्थ साधक का शरीर और ब्रह्माण्ड का अर्थ स्वत: स्पष्ट है ही। जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वही सम्पूर्ण दृश्य पिण्ड में भी है । विवाह का अर्थ जीवात्मा और परमात्मा का संयोग या मिलन है। इस प्रकार की भाषा एक विशेष प्रकार की मनः स्थिति को प्रकट करने वाली होने से, स्वयं में विशेष शब्दावली रखने के कारण "सन्धा या सन्ध्या भाषा कहलायी।
5. विरह - आध्यात्मिक विरहानुभूति का सन्त साहित्य में विशेष महत्त्व है ! ईश्वररूपी पति को पान करने के लिए साधक की आत्मारूपी नारी को कभी-कभी काफी निराशा प्रतीत होती है, विरह महसूस होता है। सन्त प्रिय के मिलन के लिए विरह को आवश्यक मानते हैं।
हंसि हसि कन्त न पाइझै, जिन पाया तिन रोई। हासि खेलां पिउ मिले, तो नहीं दुहागिनी कोई॥
(कबीर ग्रन्थावली तिवारी पृष्ठ 143 साखी 38) जो विरह को कष्टदायक मानते हैं उनके लिए कबीर का कथन है कि विरह विरह कहकर चीखना बेकार है, जिस शरीर में विरह का संचार नहीं हुआ वह श्मसान की तरह है - . , बिरहा बिरहा मति कहौ, विरहा है सुलतान।
जिहि घटि विरह न संचरै, सो घट सदा मसान ॥' सन्तों ने विरहानुभूति की अभिव्यक्ति अनेक कल्पनाओं के द्वारा की है। विरह में प्रभावित अश्रुओं के लिए रहट के व्यापार की, 'विरह पीड़ित भक्त के नेत्रों के लिए विरह कमण्डल हाथ में लिये विरक्त योगी की, विरहिणी नारी के लिए "जल बिन मछली" की, विरह के लिए भुजंगम की सुन्दर कल्पनाएँ कबीर के द्वारा की गई हैं। यह विरह भुजंग कबीर के अंग अंग को खा रहा
1. कबीर ग्रन्थावली, तिवारी पृष्ठ 143 साखी 16 2. सन्त साहित्य संग्रह भाग -1 पृष्ठ 15/5 4. वही पृष्ठ 14/1
3, वही पृष्ठ 15/13 5. वही पृष्ठ 159