Book Title: Mahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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एक समालोचनात्मक अध्ययन
ब्रह्मात्मक स्वानुभूति में आनन्दातिरेक एवं भाव विहवलता के कारण ऐसी अपूर्व स्थिति बन जाती है कि ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय एकमेक होते हुए “मजा" "स्वाद" या
आनन्द रूप में परिणित हो जाते हैं। इस स्थिति को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है और यही स्थिति "रहस्यवाद" संज्ञा से अभिहित कर दी जाती है क्यों कि व्यक्त करने के बार-बार प्रयत्न करने पर भी वह अभिव्यक्त नहीं हो पाती और उसकी अभिव्यक्ति पाठक या श्रोता को चकित करती हुई गूढ़ता या जटिलता उत्पन्न करती हुई अस्पष्ट बनी रहती है। सन्त कबीर ने उस दशा का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया है
अविगत अकल अनुपम देख्या, कहता कहा न आई। सैन करै मन ही मन रहसै गूगै जानि मिठाई ॥ आपै में तब आपा निरख्या, अपन पै आपा सूझ्या।
आपै कहत सुनत पुनि अपना, अपन मैं आपा बूझ्या॥' सन्त रविदास के अनुसार इस दशा में पूर्ण शांतिमय सन्तोष की भी स्थिति आ जाती है और तब उस परमतत्त्व विषयक भजनादि तक की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। उनका कहना है । -
गाइ गाइ अबका कहि गाई गावनहार को निकट बताऊँ। जब लग है या तन को आसा, तब लग कर पुकारा। जब मन मिल्यौ आस नहिं तन की, तब को गाक्नहारा ॥'
सन्तों के काव्य में सांकेतिक भाषा और प्रतीकों का प्रचुर रूप में प्रयोग हुआ है। सन्तों के प्रतीकों द्वारा रहस्यानुभूति की अभिव्यक्ति निम्नांकित प्रकार से हुई है
(1) चेतन अचेतन की समरसता के प्रतीक यथा - "जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी"।
(2) जीवन की सामान्य उपयोगिता वस्तुओं के माध्यम से अनन्त की कल्पना यथा वायु, जल, अन्नादि में ब्रह्म, ब्रह्म की स्थिति की कल्पना । सन्तों के सहस्त्रदल कमल, सूर्य, चन्द्र आदि इस प्रकार के प्रतीक हैं।
(3) मानवीय सम्बन्धों के रूप में परमतत्त्व की कल्पना - यथा पिता-पुत्र,
1, कबीर ग्रन्थावली, काशी ना.प्र.सभा पद 6 पृष्ठ 90 2. रैदास की बानी, वे.प्रे.प्रयाग, पद 3 पृष्ठ 3