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भारतीय दर्शन में न्याय-विद्या | ११ योग में शरीर की शुद्धि और शरीर की दृढ़ता भी तो परम आवश्यक है। अतः योग क्रियात्मक है। योग का साहित्य
पतञ्जलिकृत योग सूत्र, योग-सूत्र पर व्यास भाष्य, भाष्य पर तत्व वैशारदी। राजा भोज ने सूत्रों पर भोज वृत्ति लिखी। विज्ञानभिक्षु ने पातञ्जल भाष्य वार्तिक की रचना की। योग साहित्य, सन्त परम्परा के सन्तों ने भी समय-समय पर अपनी भाषा में लिखा है। सांख्य और योग एक दूसरे के पूरक दर्शन सम्प्रदाय रहे हैं । न्याय-वैशेषिक सम्प्रदाय
न्याय और वैशेषिक, दोनों एक-दूसरे के पूरक दर्शन हैं, विरोधी नहीं। दोनों में कुछ मौलिक भेद भी हैं-न्याय दर्शन प्रमाण प्रधान है, और वैशेषिक दर्शन पदार्थ प्रधान है। प्रमाण की विस्तृत व्याख्या न्याय दर्शन में की है, और पदार्थ-मीमांसा वैशेषिक दर्शन की अपनी विशेषता है। लेकिन आगे चलकर दोनों में समन्वय हो गया था। न्याय दर्शन चार प्रमाण स्वीकार करता है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । वैशेषिक दर्शन सप्त पदार्थों को स्वीकार करता है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । विशेष पदार्थ को स्वीकार करने के कारण ही इस दर्शन को वैशेषिक दर्शन कहते हैं । विकास के तीन युग
न्याय और वैशेषिक सम्प्रदाय के तीन युग हैं-प्राचीन युग, मध्य युग और नवीन युग । महर्षि गौतम के न्याय-सूत्र, उन पर वात्स्यायन भाष्य, न्यायवार्तिक, न्याय तात्पर्य वृत्ति और न्याय मञ्जरी आदि ग्रन्थ प्राचीन यूग के ग्रन्थ हैं। महर्षि कणाद के सुत्र, उन पर प्रशस्तपाद भाष्य और किरणावली आदि वैशेषिक ग्रन्थ भी प्राचीन युग के ग्रन्थ हैं। आचार्य उदयन के दो ग्रन्थ-न्याय कुसुमाञ्जलि और आत्म तत्त्वविवेक भी प्राचीन युग के महत्वपूर्ण न्याय ग्रन्थ हैं । मध्ययुग में बौद्ध और जैन न्याय की गणना की है। आचार्य दिङ नाग और आचार्य धर्मकीर्ति बौद्ध-न्याय के प्रसिद्ध नैयायिक हैं । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक भट्ट, वादिदेव सूरि, आचार्य प्रभाचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र सूरि और उपाध्याय यशोविजय आदि जैन-न्याय के प्रसिद्ध एवं विख्यात आचार्य रहे हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन का नवीन युग गंगेश उपाध्याय के चिन्तामणि ग्रन्थ से प्रारम्भ होता है। मणि पर प्रसिद्ध टीका का नाम-आलोक है। इस परम्परा के प्रसिद्ध
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