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१८ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन
का संयोग अनादिकाल से है । यही जीव का बन्धन कहा जाता है । बन्धन से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है । साधना का मुख्य लक्ष्य यही है । इसके लिए संवर और निर्जरा आवश्यक है । संसार का और क्लेश का कारण है- आस्रव और बन्ध । आस्रव को साधना है ।
संसार के दुःखछोड़ना ही वस्तुतः
देन है - नयवाद, भव्य प्रासाद के
भारतीय दर्शनों को जैनदर्शन की सबसे बड़ी अनेकान्तवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद । जैनदर्शन के ये चार आधारभूत स्तम्भ माने जाते हैं । स्याद्वाद के महादुर्ग में प्रवेश के ये चार द्वार हैं । इन चारों को समझने के लिए ही तो प्रमाणवाद की परम आवश्यकता है ।
प्रमाणवाद में भी जैन परम्परा के आचार्यों ने नयी व्यवस्था प्रदान की है । प्रमाण के दो भेद - प्रत्यक्ष और परोक्ष - करके अन्य दर्शनों द्वारा मान्य समस्त प्रमाणों को दो में ही समाहित कर लिया गया है । अतः न्यायदर्शन के इतिहास में, प्रमाणवाद भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है । उस व्यवस्था के प्रथम सूत्रधार हैं, सिद्धसेन दिवाकर, जिनका काल ईस्वी सन् ४८० माना गया है । वाचक यशोविजयजी न्यायाचार्य ने प्रमाण व्यवस्था को अन्तिम शिखर पर पहुँचा दिया ।
बौद्ध-दर्शन
भगवान् बुद्ध ने चार आर्यसत्य का उपदेश दिया था - दुःख, दुःखहेतु, दुःखनिरोध और उसका उपाय। जरा, मरण और रोग, ये संसार के दुःख हैं । उसके हेतु अथवा कारण को बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद कहा । प्रतीत्य का अर्थ है - ऐसा होने पर अर्थात् कार्य के प्रति कारणों के एकत्रित होने पर समुत्पाद अर्थात् उत्पन्न होना । संसार का मूल कारण अज्ञान है, उसका नाश हो जाने से दुःखनिरोध की प्राप्ति होती है । उसका उपाय तो अष्टांग साधन हैं । सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् संकल्प आदि हैं । बौद्ध दर्शन के अनुसार संसार का प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है । किसी पदार्थ में स्थिरता नहीं है ।
बौद्ध दर्शन चार सम्प्रदायों में विभक्त है - वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक | वैभाषिक बाह्य वस्तु को प्रत्यक्ष मानते हैं, परन्तु सौत्रान्तिक बाह्य वस्तु को अनुमेय मानते हैं । ये दोनों बाह्यार्थवादी कहे जाते हैं | योगाचार ज्ञानवादी है । माध्यमिक शून्यवादी है ।
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